SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जन्य फलाश्रय को कर्म कहते हैं -pi १०० परसमवेतक्रियाजन्यफलशालित्वं कर्मत्वम् । . यहां परत्व का अर्थ है भिन्नत्व और समवेत का अर्थ हैं समवाय सम्बन्ध से वृत्तित्व । किंतु प्रकृत कर्मलक्षण अव्याप्ति दोष से ग्रस्त है, क्योंकि 'काशीं गच्छति न प्रयागम् ' प्रभृति स्थलों में दोष यह रह जाता है कि काशी भिन्न चैत्रादि समवेत उत्तरदेश संयोगानुकूल व्यापारजन्य उत्तरदेश संयोगरूप फलशालित्व प्रयागादि में समन्वित नहीं होने के कारण प्रयाग की कर्मसंज्ञा नहीं बन पाती । अतः निर्णय के रूप में भट्ट नागेशोक्त कर्मत्व का निर्दुष्ट लक्षण स्वीकार करना चाहिए प्रकृतधात्वर्थ प्रधानीभूतव्यापारप्रयोज्यप्रकृतधात्वर्थफलाश्रयत्वेनोद्देश्य त्वयोग्यताविशेषशालित्वं कर्मत्वम् । " १०१ समास-लक्षण आचार्य श्री जयकृष्ण समास को एक विशेष प्रकार की अखण्ड उपाधि मानते हैं तत्र समासत्वमखण्डोपाधिविशेषर्न तु कर्मधारयादिषडन्यतमत्वमात्माश्रयत्वात् । १०२ इस प्रसङ्ग में इन्होंने जो अव्ययीभावसमास, तत्पुरुषसमास, कर्मधारयसमास, द्विगुसमास, बहुब्रीहिसमास और द्वन्द्वसमास के लक्षण दिए हैं वे सर्वथा नवीन, मौलिक और प्रथमतः दृष्टिगोचर हुए हैं। यथा समासग्रस्तत्वे सति नानाविभक्तिष्वेकरूपतावत्पदत्वमव्ययीभावत्वम् । असमान विभक्तिमत्प्रतिपदप्रकृतिकत्वे सत्यभेदबोधकपदत्वं तत्पुरुषत्वम् ।। १* द्विगुभिन्नत्वे सति समान विभक्तिमत्पदप्रकृतिकत्वे सत्यभेदबोधकत्वं कर्मधारयत्वम् " समानविभक्तिमत्पदप्रकृतिकत्वे सत्यभेदबोधक संख्यापूर्वपदत्वं द्वित्वम् ॥ १०६ तत्पुरुष भिन्नत्वे सत्युत्तरपदलाक्षणिक पदवत्त्वं बहुव्रीहित्वम् । पदजन्यप्रतिपत्तिविषयभेदबोधकत्वे सति समानविभक्तिमत्पदप्रकृतिकत्वं द्वंद्वत्वम् । द्वन्द्वं रहस्यमर्यादावचनव्युत्क्रमणयज्ञपात्रप्रयोगाभिव्यक्तिषु । • इस सूत्र द्वारा आचार्य पाणिनि ने 'द्वन्द्व' शब्द को रहस्यादि अनेक अर्थों में निरूपित किया है । 'च' के अर्थ में विहित द्वंद्व समास में 'च' का अर्थ भेद है । यह भेद पदार्थ तथा पदार्थावच्छेदक इन दोनों ही अर्थों में होता है । आचार्य श्री जयकृष्ण चार्थबोधक द्वंद्व समास के दो ही भेद मानते हैं इतरेतर तथा समाहार, जो कि इनकी अपनी निजी अवधारणा है स च द्विविध इतरेतरः समाहारश्च । " जबकि वैयाकरणपरम्परा 'च' के चार अर्थ मानती हैं- समुच्चय, अन्वाचय, इतरेतर और समाहार । इनमें समुच्चय और अन्वाचय में एकार्थीभावसामर्थ्य न होने से समास नहीं होता, किंतु इतरेतर और समाहार में एकार्थीभावसामर्थ्य विद्यमान है अतः यहां समास हो जाता है । निपातार्थ ७८ आचार्य श्री जयकृष्ण यत्र-तत्र नैयायिक मत से हटकर वैयाकरणमतानुसार भी तुलसी प्रशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy