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________________ तुम्णोः क्रियार्थी क्रिया एककर्तृकत्वञ्च 19 ऐसे क्रियार्थी क्रिया के अर्थ के बारे में सारमञ्जरीकार श्रीजयकृष्ण का अपना एक अलग चितन है । पाणिनीय सिद्धांतानुसार क्रिया से तात्पर्य है धात्वर्थ अर्थात् भाव । वह धात्वर्थ, जिस क्रिया का प्रयोजन हो, ऐसी क्रिया के उपपद अर्थात् समीप उच्चरित होने पर भविष्यत्काल में तुमुन् तथा ण्वुल् प्रत्ययों का विधान होता है । स्थलों में उपपद बनी हुई क्रिया एवं प्रयोजनीभूत क्रिया का कर्त्ता समान होने पर प्रयोजनीभूत अर्थ वाली धातु से आगे भाव में तुमुन् और कर्त्ता है। जबकि सारमञ्जरीकार श्री जयकृष्ण का आशय यह है कि लेकर जिस किसी कार्य में प्रवृत्त होता है वह उद्देश्य उसका प्रयोजन कहलाता हैइस सामान्य नियमानुसार उद्देश्यता सम्बन्ध से प्रयोजनीभूता क्रिया ही क्रियार्थाक्रिया कहलाती है में ण्वुल् प्रत्यय होता जो जिस उद्देश्य को उद्देश्यतासम्बन्धेन क्रियानिमित्तीभूतक्रिया क्रियार्था प्रयोजनीभूता उस क्रिया के आगे भविष्यत्काल में समानकर्तृ कत्व रहने पर भाव तुमुन् तथा कर्त्ता में वल् प्रत्यय होता है । जैसे 'कृष्णं द्रष्टुं याति' इत्यादि स्थल में उद्देश्यता सम्बन्ध से गमनक्रिया की निमित्तता दर्शनक्रिया में होने के कारण तुमादि प्रत्ययों का विधान होता है । अतः समानकर्त्तकत्व की उपस्थिति अपेक्षित होने के कारण समानकर्तृकत्व नहीं होने पर भी तुमुन् प्रत्यय का प्रयोग देखने को मिलता है; यथा ----- 'न दास्यामि समादातुं सोमं कस्मैचिदप्यहम्' - क्रिया धात्वर्थ: स अर्थः प्रयोजनं यस्या एवम्भूतायां क्रियायामुपपदीभूतायां गम्यमानायां भविष्यत्काले उपपदी भूतक्रियाया: प्रयोजनीभूतक्रियायाश्च समानकर्तृ कत्वे च प्रयोजनीभूतार्थकधातोर्भावे तुम्कर्त्तरि वृण्प्रत्ययो भवत इति पाणिनिप्रभृतयः । ग्रन्थकृन्मते तु यद्यदुद्दिश्य प्रवर्त्तते तत्तस्य प्रयोजनमिति नियमादुद्देश्यतया क्रियाया निमित्तीभूता प्रयोजनीभूता या क्रिया सैव क्रियार्थाक्रियेत्यर्थः । तथा च यस्य धातोरर्थः समानकर्तृ कस्यान्यधात्वर्थस्य प्रयोजनं भवति तस्माद्धातोर्भविष्यतिकाले भावे तुम्कर्त्तरि वुण्भवतीति तात्पर्यम् । यथा कृष्णं द्रष्टं याति कृष्णं दर्शको यातीत्यादी स्वकर्तृकं कृष्णकर्मकं यद्भविष्यद्दर्शनं तत्प्रयोजनगमनाश्रय इति तदुद्देश्यकगमनाश्रय इति वा शाब्दबोधः । अत्र च दर्शनक्रियायां गमनक्रियाया उद्देश्यतया निमित्तत्वेन दृश्धातोरुत्तरं तुम्वुणी बोध्यो ।" क्त्वा समानकर्तृकयोः पूर्वकाले | " इस पाणिनीयसूत्र से विधान किए जाने वाले क्त्वा प्रत्यय के सम्बन्ध में श्री जयकृष्ण का कहना है कि क्त्वा प्रत्यय भाव, आनन्तर्य और क्रिया समानकर्तृकत्व इन तीन अर्थों का वाचक है क्तवाल्यपोर्भाव आनन्तयं क्रियासमानकर्तृ कत्वमपीति संक्षेपः । 23 श्रीजयकृष्ण की यह मान्यता न्यायमतानुसारिणी है, जबकि व्याकरण परम्परा में समानकर्ता कत्वादि अर्थ क्त्वा प्रत्यय के द्योत्य माने जाते हैं खण्ड २३, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only ७५ www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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