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अव्ययकृत इत्युक्तेः प्रकृत्यर्थे तुमादयः।
समानकर्तृकत्वादि द्योत्येमषामिति स्थितिः ।। क्रियासमानक'कत्व का अर्थ है- मुख्य क्रिया और क्त्वा प्रत्ययान्त क्रिया का एककर्तृकत्व होना
क्रियासमानकर्तृकत्वं मुख्यक्रियायाः क्त्वाप्रत्ययान्तप्रतिपाद्यक्रियायाश्चककत - कत्वमित्यर्थः । तथाहि विष्णुं नत्वा प्रणम्य वा स्तोति विप्र इत्यादी विष्णु विषयकस्तुतिसमानकर्तृ कनत्युत्तर (प्रणत्युत्तर) कालवर्तमानस्तुत्यनुकूलव्यापाराश्रयो विप्र इति शाब्दबोधः । ५
क्त्वाप्रत्ययान्त क्रिया के प्रयोगस्थल में मुख्य-क्रिया तिङन्त-क्रिया होती है।
यद्यपि दोनों धात्वर्थ समानकालीन होने पर किसी भी धात्वर्थ से क्त्वा प्रत्यय नहीं होगा; यथा 'यज्ञदत्त: जल्पति व्रजति च', किंतु कहीं-कहीं पर इस नियम का अपवाद देखा जाता है। जैसे 'मुखं व्यादाय स्वपिति' यहां निद्राक्रिया के समकालीन ही मुखव्यादानक्रिया की सम्पन्नता प्रतीत हो रही है, तथापि निद्रा और मुख व्यादान क्रिया में मुख-व्यादान-क्रिया-बोधक धातु से आगे क्त्वा प्रत्यय का प्रयोग (व्यादाय) हुआ है
___ क्वचित्तादशक्रिययोः समानकालीनत्वमपि तदर्थः। वथा मुखं व्यादाय स्वपिति इत्यादी निद्रासमकालीनत्वं तत्समानकर्तृकं मुखकर्मताकं व्यादानमतएव तादृशव्यादानसमानकालीनस्वापानुकूलव्यापाराश्रय इति शाब्दबोधः ।"
यद्यपि 'मृतं दृष्ट्वा दुःखं भवति प्रियं दृष्ट्वा सुखं भवति' इत्यादि स्थलों में दर्शनक्रिया और उत्पत्ति रूप भवनक्रिया के कर्ता भिन्न-भिन्न होने के कारण दृश् धातु से आगे क्त्वा प्रत्यय का प्रयोग साधु नहीं होना चाहिए, तथापि ऐसे स्थलों में स्थित' इत्यादि पदों का अध्याहार इष्ट होने के कारण समानककत्व का निर्वाह हो जाता है। जैसे 'मृतं दृष्ट्वा स्थितस्य दुःखं भवति' इत्यादि रूप में शाब्दबोध होता है जो कि दर्शनक्रिया और स्थितिक्रिया का समानकर्तृकत्व बतलाता है
ननु कथं मृतं दृष्ट्वा दुःखं भवति प्रियं दृष्ट्वा सुखं भवति इत्यादी दर्शनक्रियाया उत्पत्तिरूपभवनक्रियायाश्च भिन्नकर्तृकतया क्त्वाप्रत्ययस्य साधुतेति चेन्न; स्थितादिपदाध्याहारेण स्थित्यादिक्रियया समानकर्तृकत्वनिर्वाहात् तथाहि मृतं प्रियं वा दृष्ट्वा स्थितस्य दुःखं सुखं वा भवतीति तत्र बोधः । एवञ्च तत्र दर्शनक्रियायाः स्थितिक्रियायाश्च समानकर्तृकत्वं बोध्यम् ।" लक्षण और परिभाषाएं कारक-लक्षण
कारक की परिभाषा के सम्बन्ध में आचार्य श्री जयकृष्ण तर्कालङ्कार का अपना मौलिक चितन है । उन्हें वैयाकरण सम्मत परिभाषा इष्ट नहीं है क्योंकि वह परिभाषा अतिव्याप्ति दोष ग्रस्त है । वैयाकरण कारक की परिभाषा 'करोति क्रियां निर्वतयति अथवा साधक निर्वतकं कारकसज्ञकं भवति", क्रियाजनकत्वं कारकत्वम्, क्रियानिष्पादक कारकत्वम्' इत्यादि रूप से देते हैं। इन परिभाषामों के अनुसार 'कारक' शन्द निमित्त का पर्याय सिद्ध होता है जो कि जनकता का समानार्थक है। निमित्तत्व
तुषसी प्रथा
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