SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निश्चित होता है। ये व्याकरण के उद्भट विद्वान् थे, क्योंकि वे पदे पदे नैयायिक सिद्धांतों का खण्डन करते हुए एवं वैयाकरण सिद्धांतों का मण्डन करते हुए प्रतीत होते हैं। ये तो आचार्य कोण्ड भट्ट से भी प्राचीन थे सम्प्रति सुप्रचलितस्य वैयाकरणभूषणसारस्य प्रणेतुस्त्वयं प्राचीनः स्यात् । ततस्तदीयं वस्त्वत्र संगृहीतमित्यस्याः शङ्कायाः तु नावकाशः ॥५ इस प्रकार श्रीकृष्ण का समय विक्रम संवत् १६८५ के आस-पास निश्चित होता है तो उनके अग्रज जयकृष्ण का समय इनसे पूर्व विक्रम संवत् १६८० मानना न्यायसङ्गत प्रतीत होता है। कृति-परिचय अफेक्ट ने जपकृष्ण की कृतियों के रूप में आठ ग्रंथों के नाम लिखे हैं। वे हैं-- कारकवाद, लघकौमुदीटीका, विभक यर्थनिर्णय, शब्दार्थतामृत, शब्दार्थसारमञ्जरी, शुद्धिचन्द्रिका, सिद्धान्तकौमुदी की वैदिकप्रक्रिया पर सुबोधिनी टीका और स्फोटचन्द्रिका । कुञ्जण्णी राजा ने इनकी कृतियों के रूप में पांच ग्रंथों के नाम और गिनवाये हैं। वे हैं - सारमञ्जरी, भट्टोजि दीक्षित की सिद्वांतकोमुदी के वैदिक और स्वरप्रक्रिया भाग पर सुबोधिनी टीका, मध्यसिद्धान्तकौमुदी विलास, लघुसिद्धांतकौमुदीटीका और शब्दार्थतामृत ।" सारमञ्जरी और सुबोधिनी टीका को छोड़कर शेष ग्रन्थों के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। किन्तु लगभग आधे ग्रंथ व्याकरण शास्त्र के प्रक्रियापक्ष को उजागर करते हैं; यथा सुबोधिनी टीका, मध्यसिद्धांतकौमुदी विलास, लघुसिद्धांतकौमुदीटीका, कारकवाद और विभक्त्यर्थनिर्णय । सुबोधिनी टीका के प्रारम्भ में श्री जयकृष्ण ने अपना वंश परिचय भी दिया है और नमस्कारात्मक मङ्गलाचरण के रूप में मुनित्रय को नमस्कार किया है। साथ ही, इस टीका के बारे में लेखक ने यह कामना की है कि यह टीका सदा ही साधु शब्दों का प्रसार करने वाली, असाधु शब्दों के मार्ग को बलात् नष्ट करने वाली और विद्वज्जनों के मन रूपी प्राङ्गण में विचरण करने वाली होवे श्रीमत्सिद्धांतकौमुद्याः स्वरवैदिकखण्डयोः । नत्वा मुनित्रयं हृद्यां टीका कुर्वे सुबोधिनीम् ।। सुशब्दवातश्रीकुमुदवनविद्योतनकरी, सदा सद्व्युत्पत्तिप्रसरणपरमानन्दनकरी। कुशब्दाध्वान्तस्य प्रसभमभिविध्वंसनकरी, कृतिर्भूयादेषा बुधजनमनः प्राङ्गणचरी ॥ प्रक्रियात्मक ग्रन्थों को छोड़कर शेष ग्रन्थ व्याकरणशास्त्र के दार्शनिक पक्ष को उजागर करते हैं; यथा सारमञ्जरी, शब्दार्थतर्कामृत, शुद्धि चन्द्रिका और स्फोटचन्द्रिका। सारमञ्जरी अत्यन्त संक्षिप्त एवं सारयुक्त ग्रंथ है तथा इसकी भाषा भी नपी-तुली और प्रौढ़ है। इसी कारण सम्भवतः लेखक की अन्तिम रचना प्रतीत खंड २३, अंक १ ६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy