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________________ और स्मृति के पश्चात् पुनः हेतु दर्शन होता है । यही अंतिम प्रत्यक्ष, जो सम्बन्ध दर्शन तथा प्रथम हेतु दर्शन इन दो प्रत्यक्षों द्वारा उत्पन्न होता है, लिंग परामर्श कहलाता है । आशय यह है कि प्रथमतः हमें रसोईघर में धूम और अग्नि के नियत साहचर्य का दर्शन होता है । पुनः जब हम पर्वत पर उठती हुई सतत धूम रेखा देखते हैं तो घूम और अग्नि के सम्बन्ध दर्शन के संस्कार उद्बुद्ध हो जाते हैं जिसके कारण संबंध की स्मृति ही हो जाती है और उसके पश्चात् अग्नि विशिष्ट ( अग्नि सम्बद्ध ) धूम का प्रत्यक्ष होता है और उसके अनन्तर अग्नि का निश्चयन हो जाता है । इस व्याख्या में अनुमान को करण अर्थ में गृहीत किया गया है जो अग्नि की प्रमिति या प्रमा की अनुमिति का करण है । यहां पर प्रमाण और उसके फल प्रमिति में भिन्नता रहती है । क्योंकि प्रमाण का विषय हेतु रहता है और फल का विषय साध्य । ३. 'यदा पुनस्तत्पूर्वं यस्य तदिदं तत्पूर्वकमिति, तदा भेदस्या विवक्षितत्वात् लिंगलिंग सम्बन्ध दर्शनान्तरं लिंगदर्शनसम्बन्ध स्मृतिभि लिंग परामर्शो विशिष्यते, तस्य पूर्वकत्वात् । किं पुनस्तैरनुमीयते ? शेषोऽर्थ इति । अनुमान मित्यत्र किं कारकम् ? भाव: करणं वा । यदा भावः तदा हानादिबुद्धयः फलम् । यदा करणं, तदा शेषवस्तु परिच्छेदः फलमिति । [ वही पृष्ट २९३] तृतीय विग्रह में 'तत्' पद को एक वचन में गृहीत किया गया है। यहां प्रमाण और उसके फल में विषय भेद न मानकर व्याख्या की गयी है । हेतु और साध्य के सम्बन्ध दर्शन के पश्चात् लिंग दर्शन से उनके सम्बन्ध की स्मृति होती है उसको 'तत्' पद से गृहित कर, लिंग परामर्श को अनुमान कहा गया है जिसके पूर्व हेतु और साध्य का सम्बन्ध होता है । इसी परामर्श के द्वारा शेष अर्थ अर्थात् साध्य की प्रतिपत्ति होती है । अनुमान में कारक सम्बन्धी जिज्ञासा स्वाभाविक है । कारक भाव अर्थ में है या करण अर्थ में । यदि उसे भाव अर्थ में गृहीत किया जाये तो हान आदि बुद्धि फल होगी और यदि करण अर्थ में लिया जाए तो 'शेष वस्तु' अर्थात् साध्य विषयक ज्ञान ही फल होगा । इस प्रकार तीन विग्रह करके वार्तिककार ने भाष्यकार का समर्थन किया जान पड़ता है । वाचस्पति मिश्र ने 'तात्पर्य टीका' में उद्योतकर कृत विग्रहों का समर्थन करते हुए यह बतलाया है कि 'तत्पूर्वकं अनुमानम्' में 'तत्' पद से यदि मात्र प्रत्यक्ष का ग्रहण किया जाये और लक्षण को प्रत्यक्षपूर्वक जो हो उसे अनुमान कहा जाये तो उसे लक्षण अतिव्याप्ति और अव्याप्ति दोषों से ग्रस्त हो जायेगा । जैसे, अनुमान को प्रत्यक्षपूर्वक माना जाये तो उसी प्रकार स्मृति, संशय और भ्रम आदि भी प्रत्यक्षपूर्वक होने के नाते अनुमान कहलाने लगेंगे । अतः अतिव्याप्ति दोष होगा । इसके अतिरिक्त अनुमान पूर्वक अनुमान में जब अनुमित अग्नि के द्वारा उससे उत्पन्न होने वाली उष्णता और अलोक का अनुमान सम्पन्न होगा तब उसमें प्रत्यक्षपूर्वकता नहीं होने के कारण उसमें अव्याप्ति खण्ड २३, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only ५५ www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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