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________________ अर्थात् 'तत्पूर्वकम्' अनुमान लक्षण का बोधक पद है। इससे हेतु और साध्य दोनों के [व्याप्ति रूप] सम्बन्ध का दर्शन (प्रत्यक्ष) तथा (पक्ष में) लिंग (हेतु) दर्शन दोनों सम्बद्ध होते हैं। (व्याप्ति रूप) संबंध से सम्बद्ध हेतु और साध्य दोनों के अवलोकन से व्याप्ति विशिष्ट हेतु का स्मरण सम्बद्ध होता है। इस प्रकार हेतु और साध्य के व्यप्ति सम्बन्ध और हेतु के प्रत्यक्ष दर्शन से अप्रत्यक्ष (अज्ञात) साध्य अर्थ का अनुमान सम्पन्न होता है । इस व्याख्या से प्रतीत होता है कि भाष्य कार को तृतीय लिंग परामर्श के द्वारा उत्पन्न होने वाला अप्रत्यक्ष साध्य का ज्ञान ही अनुमान के रूप में अभीष्ट जान पड़ता है जो उक्त तीन पंक्तियों से स्पष्ट होता है । उद्योतकर ने 'तत्' पद की व्याख्या तीनों वचन बहुवचन, द्विवचन तथा एक वचन में कर अपनी विशिष्ट प्रतिभा का परिचय दिया है । 'तत्पूर्वक अनुमानम्' पद की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं कि समान जातीय प्रत्यक्षादि प्रमाण तथा विजातीय स्मृति, संशय आदि अप्रमाणों से भेद ज्ञापित करने के लिए सूत्रकार ने अनुमान को 'तत्पूर्वकम्' कहा है । 'तत्' पद की-'तानि ते तत् पूर्व यस्य तदिदं तत्पूर्वकम्'-तीन प्रकार से विवेचना की जा सकती हैं ----- १. 'यदा तानीति विग्रहः तदा समस्त प्रमाणाभिसम्बन्धात् सर्व प्रमाणपूर्वकत्व मनुमानस्य वणितं भवति । पारम्पर्येण पुनस्तत् प्रत्यक्ष एव व्यवतिष्टते इति प्रत्यक्षपूर्वकत्वमुक्तं भवति । २. यद्यापि विग्रहः ते द्वे पूर्वे यस्येति, ते द्वे प्रत्यक्षे पूर्वं यस्य प्रत्यक्षस्य तदिदं तत्पूर्वकं प्रत्यक्षमिति । कतरे द्वे प्रत्यक्ष ? लिंगलिंगीसम्बन्धदर्शनमाद्यं प्रत्यक्षम्, लिंगदर्शनं च द्वितीयम् । बुभुत्सावतो द्वितीयात् लिंगदर्शनात् संस्काराभिव्यक्त्यनन्तरकालं स्मृतिः स्मृत्यनन्तरं च पुनलिंगदर्शनमयं धूम इति । यत् इदमन्तिमं प्रत्यक्ष पूर्वाभ्यां प्रत्यक्षाभ्यां स्मृत्या चानुगृह्यमाणं लिंग परामर्शरूपमनुमानं भवति । __-[न्यायवातिक पृष्ठ २९२] प्रथम विग्रह-'तानि पूर्व यस्य' स्वीकार करने पर 'तानि' बहुवचन पद से सभी प्रमाणों का ग्रहण होने के कारण अनुमान लक्षण 'सवंप्रमाणपूर्वकत्व' से अभिसम्बद्ध होगा। ऐसा लक्षण अपनाने पर अनुमान, शब्द अथवा उपमानपूर्वक होने वाले अनुमानों में लक्षण की अव्याप्ति नहीं होगी। किसी भी प्रमाण से उपपन्न क्यों न हो प्रत्येक अनुमान परम्परा विधया प्रत्यक्षपूर्वक होने से तत्पूर्वक पद की व्याख्या कही जायेगी। द्वितीय विग्रह में द्विवचन का प्रयोग किया गया है। इसके अनुसार 'ते द्वे पूर्व यस्य' अर्थात् अनुमान के पूर्व में दो प्रकार के प्रत्यक्ष होते हैं। इनमें ये आद्य प्रत्यक्ष हेतु और साध्य के बीच पाया जाने वाला (व्याप्ति) सम्बन्ध है तथा दूसरा (पक्ष में) हेतु का दर्शन है । द्वितीय की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं कि हेतु और साध्य के सम्बन्ध दर्शन के संस्कार की अभिव्यक्ति होने के बाद उनके सम्बन्ध की स्मृति होती है तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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