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________________ होगी । इसीलिए संभवतः इन्हीं दोषों से अनुमान को निराकृत करने के लिए 'तत्पूर्वक' पद की आवृत्ति कर तीन विग्रहों का वार्तिककार ने विधान किया है। जैसे कि प्रथम 'तानि' पद द्वारा प्रत्यक्ष आदि सभी प्रमाणों को संगृहीत करने के कारण उक्त दोष नहीं होंगे। ऐसा मानने पर 'तत्पूर्वक' का भाष्यकार वात्स्यायन द्वारा सम्मत अर्थ लिंगदर्शनपूर्वकम्' से भी कोई विरोध नहीं होगा। क्योंकि स्वयं वातिककार ने भी प्रत्यक्षपूर्वकता का आशय परम्परा विधया प्रत्यक्षपूर्वकता से लिया है । अतिव्याप्ति का वारण वार्तिककार के द्वितीय विग्रह 'ते द्वे प्रत्यक्ष पूर्व यस्य' के आधार पर लिंग परामर्श रूप प्रत्यक्ष मानकर किया जा सकता है । क्योंकि अपने विषय में वह साध्य अर्थ की प्रतीति कराने में अनुमान ही है । यहां पर वाचस्पति मिश्र की एक और विशेषता प्रतिलक्षित होती है । वह, यह कि उद्योतकर द्वारा गृहीत 'प्रत्यक्ष' पद को वे उपलक्षण परक मानते हैं । इस प्रकार प्रत्यक्षे' को अनुमाने, शब्द आदि का भी धोतक समझा जा सकता है क्योंकि लिंग और लिंगी के सम्बन्ध का अनुमान और हेतु के अनुमान तथा शब्द प्रमाण से भी दोनों (हेतु और साध्य) के सम्बन्ध का ज्ञान और हेतु ज्ञान होने पर अनुमान सम्पन्न हो जाता है और उससे अनुमेय अग्नि आदि की प्रतिपत्ति हो सकती तृतीय लिंग परामर्श की अनिवार्यता लक्षित करते हुए वे आगे कहते हैं कि द्वितीय लिंग दर्शन से व्याप्ति के संस्कार उबुद्ध हो जाते हैं और उससे व्याप्ति का स्मरण होता है । इस स्मरण की अवस्था में लिंगदर्शन का विनाश हो जाता है । इसलिए दोनों में योगपद्य (एक साथ होना) नहीं बन सकता। इस कारण विनाश के क्षण में दोनों का साथ होने पर भी वे युगपत रूप से परस्पर एक दूसरे के सहायक नहीं बन सकेंगे । इसलिए दोनों प्रत्यक्षों से उत्पन्न तृतीय लिंग परामर्श को मानना अत्यावश्यक -[तात्पर्य टीका पृ० ३०२-५[ 'विग्रहत्रय' का समर्थन करते हए परिशुद्धिकार उदयन भी कहते हैं - 'न हि व्याप्तिस्मरणमात्रादनुमितिः नापि लिंगदर्शनमात्रात् कि तहि ? व्याप्तिविशिष्टलिंगदर्शनात् । न च व्याप्ति विशिष्टं लिंगमेकैकस्योभयस्य वा गोचरः, किं तु स्वतंत्रमुभयमुभयस्य । न च स्वतंत्रोभयज्ञानेऽपि विशिष्टज्ञानं भवति ।' ___-[परिशुद्धि पृ० ३३२] अर्थात् अनुमिति न तो केवल व्याप्तिस्मरण से होती है और न केवल लिंग (हेतु) दर्शन से अपितु व्याप्ति विशिष्ट हेतु के ज्ञान रूप तृतीय लिंग परामर्श से उत्पन्न होती है । व्याप्ति और हेतु दर्शन के अपने-अपने स्वतंत्र विषय हैं। यथा व्याप्ति दर्शन का व्याप्ति और हेतु दर्शन का विषय हेतु है । किंतु व्याप्ति विशिष्ट हेतु इस प्रकार न तो व्याप्ति का विषय है न हेतु दर्शन का । आशय यह कि व्याप्ति विशिष्ट हेतु दोनों में किसी भी प्रत्यक्ष का विषय नहीं बन पाता है। इस व्याप्ति विशिष्ट हेतु ज्ञान रूप तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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