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________________ शाब्दी व्यञ्जना अभिधामूला तथा लक्षणामूलक इन दो भेदों में विभक्त की जाती है। ___अभिधामूला शाब्दी व्यञ्जना नियंत्रित अर्थ की बोधिका होती है। जब वाक्य में प्रयुक्त अनेकार्थक पदों में संयोगादि अभिधा नियामकों के कारण अभिधा प्राकरणिक अर्थ में नियंत्रित हो जाती है तब अप्राकरणिक अर्थ की प्रतीति व्यंजना व्यापार द्वारा मानी जाती हैं। संयोगादि नियामक हेतुओं के कारण अभिधा एकार्थ में नियंत्रित हो जाती है, अत: अप्राकरणिक अर्थ के बोधन में इसे सक्षम नहीं माना जा सकता है। अप्राकरणिक अर्थ की प्रतीति व्यंजना व्यापार से ही होती है ।२६ अभिधामूला शाब्दी व्यंजना का अवसर तभी उपस्थित होता है जबकि वाक्य में अनेकार्थ शब्दों का प्रयोग किया गया हो और अभिधा प्राकरणिक अर्थ में नियामक हेतुओं के कारण नियंत्रित हो गई हो। आचार्य मम्मट ने काव्य-प्रकाश में अभिधामूला शाब्दी व्यंजना का यह उदाहरण प्रस्तुत किया हैभद्रात्मनो दुरधि रोहतनोविशाल वंशोन्नतः, कृतशिलीमुख संग्रहस्या । यस्यानुपप्लुतगतेः परवारणस्य, दानाम्बुसेकसुभगः सततं करोऽभूत ।। इस पद्य में प्राकरणिक अर्थ राजपरक अर्थ है द्वितीय अर्थ गजपरक अर्थ है किंतु वह कवि विवक्षित न होने से अप्राकरणिक है। अभिधा संयोगादिक से नियंत्रित होकर जब प्राकरणिक अर्थ की प्रतीति कराकर उपरत व्यापार हो जाती है तब अप्राकरणिक अर्थ का बोध व्यंजनावृत्ति से ही सम्भव हो पाता है। शाब्दी व्यंजना के दोनों भेदों का उपपादन करने के पश्चात् आर्थी व्यंजना के स्वरूप को भी उद्घाटित किया गया है। वक्तृ, बोद्धव्य इत्यादि सहकारी हेतुओं के कारण जब प्रतिभाशाली सहृदयों को वाच्यार्थ से अतिरिक्त अर्थ की प्रतीति होती है तब उसे आर्थी व्यंजना कहा जाता है । आर्थी व्यंजना में अर्थ ही अर्थान्तर की प्रतीति का मुख्य हेतु होता है किंतु इसका आशय यह नहीं है कि इसमें शब्द का महत्त्व नहीं रहता । शब्द की सहकारिता आर्थी व्यंजना में भी अपेक्षित होती है ।२४ शाब्दी एवं आर्थी व्यंजना दोनों में शब्द की उपादेयता स्वीकार की गई है। आर्थी व्यंजना में एक अर्थ से अर्थान्तर की प्रतीति कराने वाले हेतुओं का संग्रह कराते हुए उनके उदाहरण भी दिये हुए हैं। वक्त वैशिष्ट्य ___ जो दूसरों को अर्थ प्रतीति कराने के लिए वाक्य का उच्चारण करता है, उसे वक्ता कहा जाता है, काव्य में वक्ता या तो कवि होता है अथवा उसके द्वारा कथा में निबद्ध नायक इत्यादि होते हैं। वक्तृवैशिष्ट्य से वाच्यार्थ व्यञ्जक होता है। तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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