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________________ 'काव्यप्रकाश' में इसका उदाहरण दिया है कि" नदी के तट पर जलाहरण के ब्याज से नायिका उपनायक से चौर्यरत गोपन रूप अर्थ व्यंजित हो रहा है । इस पद में वणित वक्तृकामिनी के दुःस्वभाव को जानने वाले सहृदयों के प्रति चौर्यरत गोपन अभिव्यंजित हो रहा है। प्रमाणान्तर से नायिका का दुराचरण जिन प्रतिभाशाली सामाजिकों को विदित है उन्हीं को इस व्यंग्यार्थ की अवगति होती है। 'काव्य दर्पण' में भी इसका अन्य उदाहरण दिया गया है । बोद्धव्य वैशिष्ट्य बोद्धव्य विशेष के संयोग से भी वाक्यार्थ व्यजक होता है। इसका भी उदाहरण है जिसमें बोद्धव्य वैशिष्ट्य से दूती का उस नायिका के नायक द्वारा उपभोग व्यक्त हो रहा है। यहां पर बौद्धव्य दूनी है । जिसकी दुष्ट चेष्टाओं को पहले भी माना गया है। अतः बौद्धव्य वैशिष्ट्य के कारण इस उदाहरण के वाच्यार्थ द्वारा सहृदयों को यह व्यंग्य प्रकट हो रहा है कि यह नायिका अपने पति द्वारा इस दूती के उपभोग को प्रकट कर रही है। दीक्षितजी ने 'काव्यदर्पण' में भी बौद्धव्य वैशिट्य का एक उदाहरण प्रस्तुत किया है। काकु वैशिष्ट्य ___काकु के वैशिट्य से भी वाच्य अर्थ विशेष का व्यंजन होता है ।" आचार्य मम्मट ने 'काव्यप्रकाश' में इसका उदाहरण प्रस्तुत किया है जो वेणीसंहार नाटक के प्रथम अङ्क से लिया गया है।" इसमें भीमदेव सहदेव से कह रहे हैं कि गुरु अर्थात् युधिष्ठिर मेरे ऊपर क्रोध कर रहे हैं। यहां काकु के द्वारा यह व्यंजित होता है कि मेरे ऊपर मात्सर्य उचित नहीं है अपितु इसका औचित्य कौरवों के ऊपर ही है । काकु का उदाहरण दो स्थलों पर उपलब्ध होता है एक तो काकु से व्यंजित अर्थ व्यंग्य होता है। और दूसरा काकु से व्यंजित होने वाला अर्थ गुणीभूतव्यंग्य भी होता है। इन दोनों में पार्थक्य की दृष्टि स्थापित करना आवश्यक प्रतीत होता है । जहां पर काकु से व्यंजित होने वाला अर्थ वाच्यार्थ की सिद्धि में सहायक होता है वहां पर गुणीभूतव्यंग्य माना जाता है । इसके अतिरिक्त जहां पर वाच्यार्थ सिद्धि के अनन्तर काकु से व्यंजित व्यंग्यार्थ प्रतीति का विषय बनता है वहां पर वह उत्तम काव्य की कोटि में परिगणित किया जाता है। वाक्य वैशिष्ट्य वाक्य वैशिष्ट्य से भी वाच्य व्यंजक माना जाता है। जैसे सपत्नी के पास गये हुए प्रणय से कुपित नायक के प्रति नायिका की उक्ति है ।२५ वाक्य वैशिष्ट्य का उदाहरण 'काव्यप्रकाश' में भी दिया है। इस उदाहरण में नायक का प्रच्छन्न कामकत्व व्यंजित होता है। नायिका के भय से निकटवर्तिनी अन्य बंर २३, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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