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को भी ध्वनिवादी आचार्यों ने स्वीकृति प्रदान की है । काव्य में अतिस्मरणीय भूतत्व प्रतीयमान है । प्रतीयमान वाच्य एवं लक्ष्य से भिन्न होता है । अतः उसकी प्रतीति के लिए व्यंजना को मानना आवश्यक है ।
साहित्यशास्त्र के अतिरिक्त अन्य किसी भी शास्त्र में व्यंजना व्यापार का उल्लेख नहीं मिलता । व्याकरण - शास्त्र के आचार्य नागेश भट्ट ने भी व्यंजना का निरूपण किया है किंतु इनका यह निरूपण साहित्यशास्त्रीय व्यंजना आविष्कार के बाद का ही है । व्यंजना शक्ति शब्द और अर्थ की वह शक्ति है जो अभिधा आदि शक्तियों के शांत हो जाने पर एक ऐसे अर्थ का अवबोधन करती है जो सर्वथा विलक्षण प्रकार का अर्थ हुआ करता है ।
प्रयोजन की प्रतीति कराने की इच्छा से जहां लक्षणा द्वारा शब्द प्रयोग किया जाता है वहां अनुमानादि द्वारा उस प्रयोजन की प्रतीति नहीं होती है अपितु उसी शब्द के द्वारा होती है और इस प्रयोजन प्रतीति के विषय में व्यंजना के अतिरिक्त अन्य कोई व्यापार नहीं हो सकता है । ५
"गंगातीरे घोषः" इत्यादि में लाक्षणिक शब्दों का प्रयोग इस हेतु किया जाता है कि उनके शीतत्व पावनत्वादि किसी प्रयोजन की प्रतीति हो सके। इसकी लाक्षणिक शब्द के द्वारा ही सर्वत्र प्रतीति होती है कोई अनुमान आदि अन्य प्रमाण इसकी प्रतीति कराने वाला नहीं है । यह लाक्षणिक शब्द व्यंजना नामक व्यापार द्वारा ही प्रयोजन या फल की प्रतीति कराता है । अतः लक्षणामूलक व्यंजना की स्वीकृति अनिवार्य है ।
जिस प्रकार गंगा शब्द प्रवाह रूप अर्थ में बाधित होकर तट रूप अर्थ का लक्षणा द्वारा बोध कराता है इसी प्रकार यदि तीरादि लक्ष्यार्थं घोषादि का आधार न हो सकता तो तीरादि अर्थ में भी वह बाधित हो जाता तथा शीतत्व पावनत्वादि में लक्षणा हो जाया करती किंतु यहां मुख्यार्थ बाध नहीं है क्योंकि प्रथम तो तीर गंगा का मुख्यार्थ ही नहीं है दूसरे तीर रूप लक्ष्यार्थं में कोई बाधा भी नहीं है । गंगा शब्द तटादि का साक्षात् बोध कराने में असमर्थ होकर लक्षणा द्वारा तट का बोध कराता है । यदि प्रयोजन के प्रतिपादन में भी असमर्थ होता तो प्रयोजन को लक्ष्यार्थ माना जा सकता था, किंतु गंगा शब्द पावनत्वादि की प्रतीति में सर्वथा समर्थ है। अतएव प्रयोजन में लक्षणा नहीं हो सकती है ।
काव्य में व्यंग्यार्थ एवं रसादि रूप अर्थ की प्रतीति के लिए आनन्दवर्धन ने व्यंजना व्यापार को जिस रूप में स्वीकार किया है उसे उनके परवर्ती समर्थकों ने भी उसी रूप में ग्रहण किया। सभी समीक्षकों ने व्यंजना को अभिधा, लक्षणा एवं तात्पर्यवृत्तियों से पृथक् एवं उत्कृष्टतम वृत्ति सिद्ध करने का प्रयास किया एवं व्यंजनावृत्ति से बोधित होने वाले व्यंग्यार्थ को अनुमानादि प्रमाणों से अग्राह्य
बताया ।
व्यञ्जना के भेद
व्यंजनावादियों ने शाब्दी एवं आर्थी भेद से व्यंजना के दो भेद किये हैं ।
खण्ड २३ अंक १
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