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________________ महत्त्व है । गौतम के अनुसार दस ऐसे सम्बन्ध हैं जिनके कारण प्रतिपत्ता प्रवृत्ति-निवृत्ति का आरोप होता है। महाभाष्यकार पतंजलि ने तात्स्थ्य, तादधर्म्य, सामीप्य एवं सहचरण इन चार संबंधों को लक्षणा का हेतु बताया है। इन चार संबंधों के कारण ही शब्द में प्रवृत्ति निवृत्ति का आरोपित व्यवहार करके अन्यार्थ की प्रतीति होती है । मुकुलभट्ट ने मीमांसाशास्त्र के आचार्य भर्तृ मित्र का उल्लेख करते हुए उनके अनुसार "अभिधेय एवं लक्ष्यार्थ में सम्बन्ध होने के कारण सादृश्य, समवाय, वपरीत्य एवं क्रिया विशेष से योग -इन पांच संबंधों को लक्षणा के हेतु रूप में उल्लेखित किया है। __ लक्षणा के बीजों में रूढ़ि अथवा प्रयोजन का होना भी आवश्यक है। जब शब्द का लोक में प्रयोगाभिधेय अर्थ से भिन्न अर्थ में प्रचलन हो जाता है तो वहां रूढ़ि लक्षणा होती है। इसका प्रसिद्ध उदाहरण "कर्मणिकुशल" है। इस प्रयोग में कुशल शब्द का वाच्यार्थ "कुशों का आनयन-कर्ता है" किंतु रूढ़ि लक्षणा के कारण लोक में इसका प्रचलित अर्थ निपुण है जब वक्ता शब्द प्रयोग करता है तो निश्चय ही उसका अभिप्राय प्रयोजन विशेष की प्रतीति कराना है। "तटे घोषः" के स्थान "गंगायां घोषः" इस वाक्य के प्रयोग से शैत्य एवं पावनत्वादि रूप प्रयोजन की प्रतिपत्ति होती है । लक्षणा के भेद लक्षणा दो प्रकार की होती है। शुद्धा एवं गौणी। शुद्धा के उपादान लक्षणा, लक्षण लक्षणा, सारोपा एवं साध्यवसाना ये चार उप भेद होते हैं। गौणी के भी सारोपा एवं साध्यवसाना ये दो उप भेद होते हैं। यहां पर यह प्रश्न खड़ा होता है कि यदि लक्षणा के प्रथम दो रूप रूढ़ि एवं प्रयोजन को मिश्रित कर दिया जाय तो लक्षणा के आठ प्रकार हो जाएंगे। इस संदेह का निराकरण करते हुए कहा है कि लक्षणा के छः प्रकारों के निर्देशक सूत्र में उपात् लक्षणावद प्रयोजनवती लक्षणा का ही वाचक है। रूढ़ि लक्षणा के सम्बन्ध में 'व्यंग्येन रहिता रूढ़ि सहिता तु प्रयोजने' सूत्र में विवेचन होने से यहां पर रूढ़ि को समाविष्ट करना औचित्यपूर्ण नहीं है। ___अभिधा की भांति लक्षणा भी सर्वमान्यवृत्ति नहीं है। वैयाकरण लक्षणा को अतिरिक्त वृत्ति नहीं मानते। साहित्य शास्त्र में मुकुलभट्ट, महिमभट्ट, एवं कुन्तक लक्षणा विरोधी आचार्य हैं । मुकुलभट्ट ने अभिधा के दस भेदों के अन्तर्गत ही लक्षणा का अन्तर्भाव माना है। महिमभट्ट ने भी मात्र अभिधा का ही अस्तित्व स्वीकार किया है । कुन्तक लक्षणा का खण्डन तो नहीं करते, किंतु विचित्रा-अभिधारूपा-वक्रोक्ति से लक्षणा को पृथक् भी नहीं मानते हैं ।२४ । व्यञ्जनावत्ति ___मुख्यार्थ एवं लक्ष्यार्थ से भिन्न अर्थ की प्रतीति कराने वाली व्यञ्जना वृत्ति तुलसी प्रशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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