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है, अमरण धर्मा है । उपनिषदों में ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं जो आत्मा के इस स्वरूप का उद्घाटन करते हैं । कठोपनिषद् में इस तथ्य की उद्घोषणा की गई है
न जायते म्रियते वा विपश्चित् ।
___ नायं कुतश्चित् न बभूव कश्चित् । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ अर्थात् यह विपश्चित्- मेधावी आत्मा न उत्पन्न होता है और न मरता है । यह न तो किसी अन्य कारण से उत्पन्न हुआ है और न स्वतः ही बना है । यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है तथा शरीर के मारे जाने पर भी स्वयं नहीं मरता। यदि मारनेवाला आत्मा को मारने का विचार करता है और मारा जानेवाला उसे मारा हुआ समझता है तो वे दोनों ही उसे नहीं जानते, क्योंकि यह न तो मारता है और न मारा जाता है --- नायं हन्ति न हन्यते ।" गीता में इस स्वरूप का विस्तार से विश्लेषण किया गया है।"
जैनाचार्यों ने आत्मा के इस स्वरूप को स्वीकार किया है। आचारांगसूत्र में निरूपित है :
___ से ण छिज्जइ ण भिज्जइ ण उज्झइ ण हम्मइ ।४८८ दशवकालिक नियुक्ति भाष्य में इस तथ्य की ओर निर्देश किया गया है--
णिच्चो अविणासी सासओ जीवो।" अर्थात् आत्मा नित्य, अविनाशी तथा शाश्वत है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी ऐसा ही निर्देश है
नत्थि जीवस्स नासु त्ति' अर्थात् जीव का कभी नाश नहीं होता वह अविनाशी
____दोनों परम्पराओं में व्यतिरेक पद्धति का सहारा लिया है। वह शब्द, स्पर्श, रूप, रस गंधादि विषयों से रहित है अर्थात् इन्द्रियों द्वारा अग्राह्य है। उपनिषदों में इस तथ्य को प्ररूपित किया गया है
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । 'आनंद ब्रह्मणो विद्वान् । न बिभेति कदाचनेति' अर्थात् जहां से मन के सहित वाणी उसे न पाकर लौट जाती है। उस ब्रह्मानन्द को जाननेवाला पुरुष कभी भय को प्राप्त नहीं होता है । अन्यत्र भी आत्मा की अग्राह्यता निरूपित है :--
नैव वाचा न मनसा प्राप्त शक्यो न चक्षुषा-कठो० २.३.१२ नैषा तर्केण मतिरापनेया कठो० १.२.९ न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनः-केन १.३ न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा-मुण्डक ३.३.२
जैनाचार्यों ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है। आचारांगकार ने लिखा है : -सव्वेसरा णियति तक्का जत्थ ण विज्जइ, मई तत्थ ण गाहिया,५२ अर्थात् जहां से शब्द लौट जाते हैं, तर्क वहां नहीं जा सकते और मति वहां नहीं जा सकती अतः
खंड २३, मंक १
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