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________________ अर्थात् जिस प्रकार शरीर में सीस का, वृक्ष में मूल का महत्त्वपूर्ण स्थान है उसी प्रकार आत्मधर्म की साधना में ध्यान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। नियमसार में प्ररूपित है कि सभी अतिचारों (दोषों) का प्रतिक्रमण ध्यान है। आचार्य नेमीचन्द चक्रवर्ती ने आत्मा में आत्मा के रमण को ध्यान कहा है । अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे झणं ।" वहां पर आत्मा को ही ध्यान रूपी रथ का धारक कहा गया है तवसुदवदवं चेदाज्माण रहघुरंधरो हवे जम्हा । " सीसं जहा सरीरस्स जहा मूलं दुमस्स य । सव्वस्स साहू धम्मस्स तहा झाणं विधीयते ॥' ३६ तम्हा तत्तियणिरदा तल्लद्धीए सदा होह || अर्थात् तप श्रुत और व्रत का धारक जो आत्मा है वही ध्यान रूपी रथ की घुरा को धारण करने वाला होता है । इसलिए हे भव्यजन ! ध्यान की प्राप्ति के लिए निरन्तर तप, श्रुत और व्रत में तत्पर होवो | आत्मा का स्वरूप आत्म स्वरूप प्रतिपादन में दोनों परम्पराओं ने उभयदृष्टिकोण - व्यवहारनय ( व्यावहारिक दृष्टि ) तथा निश्चयनय ( पारमार्थिक दृष्टि ) का उपयोग किया है । व्यावहारिक दृष्टि से संसार के दुःख-सुख के चक्र में फंसा हुआ जीव ही आत्मा है । वह शरीरवान्, देही और मरण धर्म तथा कर्मों का कर्ता और भोक्ता है । श्वेताश्वरोपनिषद् में कहा गया है गुणान्वयो यः फलकर्मकर्ता कृतस्य तस्यैव स चोपभोक्ता । ३४ स विश्वरूपः त्रिगुणस्त्रिवत्र्मा अर्थात जो वासनाजन्य गुणों से सम्बद्ध, फलप्रद कर्म का कर्ता और उस किए हुए कर्म का उपभोग करने वाला है । वह विभिन्न रूपों वाला त्रिगुणमय, तीन मार्गों से गमन करने वाला, प्राणों का अधिष्ठाता तथा कर्मों के अनुसार संचरण करने वाला होता है । जिस प्रकार अन्न और जल के सेवन से शरीर की वृद्धि होती है वैसे ही संकल्प, स्पर्श, दर्शन और मोह से कर्म होते हैं फिर यह देही क्रमशः विभिन्न योनियों में जाकर उन कर्मों के अनुसार रूप धारण करता है ।" जीव अपने पाप-पुण्य आदि कृत्यों के आधार पर बहुत से सूक्ष्म स्थूल देह धारण करता है । इस देहान्तर प्राप्ति के दो कारण हैं : १. कर्मफल और २. मानसिक संस्कार Jain Education International . प्राणाधिपः संचरति स्वकर्मभिः ।। " जैन दर्शन में भी कर्मफल लिप्त संसारी जीव का यही स्वरूप है । कर्म कलंक से जो लिप्त है, स्वस्वभाव को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया है कम्म कालंकालीणा अलद्धससहाव भावसभावा । " पंचास्तिकाय टीका में कहा गया है - कर्मफलचेतनात्मका: संसारिणः अशुद्धोपयोगयुक्ता संसारिणः" अर्थात् कर्म एवं कर्मफल चेतनात्मक संसारी जीव हैं । संसारी जीव अशुद्धोपयोग से युक्त है । दोनों परम्पराओं में स्वीकृत है कि आत्मा की कालिक सत्ता है, वह अविनाशी तुलसी प्रज्ञा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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