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राग विवाग सतण्णादिगिद्ध अवतित्ति चक्कवट्टिसुहं ।।
णिस्सगं णिव्वुइसुहस्स कहं अणंतभागं पि।" अर्थात् चक्रवर्ती का सुख राग-भाव को बढ़ाने वाला है तथा तृष्णा को समृद्ध करने वाला है । इसलिए परिग्रह का त्याग करने पर राग-द्वेष रहित साधक को जो सुख प्राप्त होता है. चक्रवर्ती का सुख उसके अनन्त भाग की भी समानता नहीं कर सकता है।
तप -आत्म प्राप्ति के साधनों में तप का महत्त्वपूर्ण स्थान है । उपनिषदों में तप की विस्तत चर्चा है। तैत्तिरीयोपनिषद का स्पष्ट आदेश है कि तप से ब्रह्म को जानो-तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व, क्योंकि तप ही ब्रह्म है -तपो ब्रह्म इति । मुण्डकोपनिषद् में अनेक स्थलों पर तप की महत्ता का संगायन किया गया है । एक स्थल पर तप को ब्रह्म की संकल्प शक्ति कहा गया है - तपसा चीयते ब्रह्म । अर्थात् ज्ञान रूप तप के द्वारा ब्रह्म कुछ उपचय---स्थूलता को प्राप्त हो जाता है। अन्यत्र भी इसका प्रभूत उल्लेख मिलता है। जैन दर्शन में तपस्या को संवर और निर्जरा का साधन माना गया है-तपसा निर्जरा च । योगभाष्य में क्षधा-पिपासा, शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वों को सहना तप कहा गया है- तपो द्वन्द्व सहनम्२८ । आचारांग के नवम अध्ययन में महावीर की तपस्या का व्यावहारिक रूप उपलब्ध होता है। कठोर तपश्चर्या के फलस्वरूप महावीर ने ज्ञान प्राप्त किया, तीर्थकरत्व रूप-ज्ञान-करुणा के अद्वय रूप हो गए। तपस्या द्वारा समग्र कर्मों को दूर कर मनुष्य शाश्वत सिद्ध हो जाता है—तवसा धुयकम्मसे सिद्धे हवइ सासए ।"
__ ध्यान - ध्यान की महत्ता सार्वजनीन एवं सर्व प्रथित है। चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहा जाता है। आचार्य शंकर ने 'मैं ब्रह्म हूं' इस प्रकार की चित्तवृत्ति से जो परमानन्द दायिनी निरालम्ब स्थिति होती है उसको ध्यान कहा है ।" तैलधारा के समान ध्येय में चित्त की एकाग्रता ध्यान है।' उमास्वाति ने 'उत्तम संहनन वाले को एक विषय में चित्त को एकाग्र करने को ध्यान कहा है ।२ उपनिषदों में अनेक स्थल पर इसका विवरण मिलता है। मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् में ध्यान की परिभाषा दी गई है -सर्वशरीरेषु चैतन्यकतानता ध्यानम्"। मुण्डकोपनिषद् में ध्यान के द्वारा आत्मदर्शन का निर्देश दिया गया है ----
ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः।" उपनिषदों में ध्यान की विधि एवं महत्त्व का विस्तार से वर्णन मिलता है ।
जैन परम्परा में ध्यान को प्रमुख आत्मसाधन के रूप में स्वीकृत किया गया है । आगम ग्रंथों एवं दार्शनिक साहित्य में इसका प्रभूत वर्णन मिलता है। ध्यान की महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा गया है
छि दति भावसमणा झाणकुठारेहिं भवरुक्खं । ५ अर्थात् भाव समण (श्रेष्ठ साधु) ध्यान रूप कुठार से भव वृक्ष (संसार चक्र) को काट डालते हैं । ऋषिभाषित (इसिभासियाई) में निर्दिष्ट है.--.
खण्ड २३, अंक १
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