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________________ ब्रह्मचर्य का खण्डन नहीं होना चाहिए : तवस्सिणो हु तं सेयं जमेगे विहमाइए ।५ अर्थात् तपस्वी के लिए यह श्रेय है कि ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए फांसी लेकर प्राण विसर्जन कर दे। वहीं पर ब्रह्मचारी के लिए कुछ आवश्यक कृत्यों का निर्देश किया गया है :-ब्रह्मचारी के लिए काम कथा वासनापूर्ण दृष्टि से किसी को देखना, परस्पर कामुक भावों का प्रसारण, ममत्व, शरीर सजावट विकत्थन मनचांचल्य और पापवृत्ति आदि सर्वथा परित्याज्य है। एक उक्ति प्रसिद्ध है : सुविसुद्ध-शील-जुत्तो पावइ कित्ति जसं च इहलोए ।१६ सव्वजण वल्लहो च्चिय, सुह गइ-भागीअ परलोए । अर्थात् अखण्ड ब्रह्मचारी इस लोक में यश-कीर्ति प्राप्त करता है और सबका प्रिय होकर परलोक में मोक्ष का भागी होता है। अपरिग्रह – भौतिक पदार्थों में आसक्ति, ममत्व, मूग, राग का परित्याग अपरिग्रह है। उपनिषदों में अनेक स्थानों पर आत्मप्राप्ति के साधनों में अपरिग्रह को स्वीकृत किया गया है। तेजोबिन्दूपनिषद् में ध्यान के अधिकारी के लिए अपरिग्रह की साधना अनिवार्य मानी गई है--- निर्द्वन्द्वो निरहंकारो निराशीरपरिग्रहः । ७ जाबालोपनिषद् में कथित है कि जो परिग्रह से रहित है, पवित्र है वह मुक्त हो जाता है-अथ परिवाविवर्णवासा मुण्डोऽपरिग्रहः शुचिरद्रोही भैक्षणो ब्रह्मभूयाय भवतीति ।१८ कठोपनिषद् में नचिकेता यमराज संवाद में स्पष्ट रूप से अपरिग्रह का महत्त्व स्वीकृत है । यमराज बार-बार संसारिक भोग-विलास एवं वैभव-सम्पन्नता की ओर नचिकेता का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं लेकिन नचिकेता अपरिग्रह के महत्त्व को उद्घोषित करता है--न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः" अर्थात् धन के द्वारा मनुष्य को तृप्त नहीं किया जा सकता है। जैन ग्रंथों में अपरिग्रह को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है । आचारांग का ऋषि आत्मसाधक को परिग्रह से विरत रहने का निर्देश देता है :-परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केज्जा अर्थात् साधक या मुनि अपने आपको परिग्रह से दूर रखे। भिक्षु को दिव्य और मानुषी सभी प्रकार के विषयों में अमूच्छित परिग्रहातीत रहने के लिए कहा गया है--सव्वठेहिं अमुच्छिए" अर्थात् सभी अर्थों-विषयों में अमूच्छितमूर्छारहित रहना चाहिए। क्योंकि परिग्रह नरक है-आयाणं नरयं । जो परिग्रही होता है कभी भी दुःख से मुक्त नहीं होता है । सूत्रकृतांग में उद्दिष्ट है चित्तमंतमचित्तं वा परिगिझ किसामवि । अन्नं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खा ण मुच्चई ।।" अर्थात् जो मनुष्य सजीव अथवा निर्जीव किसी भी वस्तु का स्वयं भी परिग्रह करता है, और दूसरों को सलाह देता है वह कभी दुःख से मुक्त नहीं हो सकता है। अपरिग्रही के महत्त्व को टंकित करते हुए भगवती आराधना का कवि कहता है :३२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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