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वह तर्कादि से अग्राम है।
वह आत्मा स्त्री-पुरुष लिंग-भेद से रहित है । उसकी कोई आकृति या चिह्न नहीं है। श्वेताश्वरोपनिषद् में निरूपित है-...
नष स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः' अर्थात् यह आत्मा न स्त्री है न पुरुष है और न नपुंसक है। आचारांगकार ने भी ऐसा ही स्वीकार किया है । --इत्थी ण पुरिसे ण अण्णहा ।५४ अर्थात् वह आत्मा न स्त्री है न पुरुष है न अन्य ।
दोनों परम्पराओं में आत्मा को सत्य, ज्ञान और आनन्द स्वरूप माना गया है । १. वह सत्य स्वरूप है : ----
तत्सत्यं स आत्मा-छान्दोग्योपनिषद् -- ६.८.७ सत्यमात्मानम्० , ६.१६.७ एतत्सत्यं ब्रह्मपुरम्० , ८.१.५ सत्यं ब्रह्मेति सत्यं ह्येव ब्रह्म-- बृहदारण्यकोपनिषद् ५.४.१ प्रश्न व्याकरण सूत्र में सत्य को ही भगवान कहा गया है---
सच्चं भयंव,५ अर्थात् सत्य ही भगवान है। २. वह आनन्द स्वरूप है-उपनिषदों में इस रूप का अनेक स्थानों पर वर्णन किया गया है । कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैविज्ञानमानन्दं ब्रह्म-बृहदारण्यकोपनिषद् ३.९.२३ आनन्द आत्मा -तैत्तिरीय० २.५.१
आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्-३.६.१ ३. वह ज्ञान स्वरूप है :
प्रज्ञान घन एव-बृहदारण्यक० ५.३.१५ आचारांग सूत्र में भी ऐसा ही निर्देश मिलता है
परिणे सण्णे (५.१३६) अर्थात् वह परिज्ञ है, सर्वतः चैतन्य है। विषमताएं १. औपनिषदिक आत्मा नित्य, विभू, एक तथा सर्वव्यापक है, परन्तु जैन-दर्शन की
दृष्टि में वह नित्यानित्य, प्रतिशरीर भिन्न, संख्या में अनन्त तथा प्रति शरीर मात्र व्यापी है। २. औपनिषदिक आत्मा अपरिणामी है। उत्पत्ति विनाश से रहित शाश्वत सत्ता है
परन्तु जैन दृष्टि में ध्रुवाध्रुव है। ३. आत्मा ही केवल जगत् का कारण है । उसी से सम्पूर्ण संसार उत्पन्न होता है
और उसी में विलीन हो जाता है, लेकिन जैन दर्शन में आत्मा को कारण के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है ।
तुलसी प्रज्ञा
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