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________________ लयबद्ध उद्दीपन प्राप्त होता है जो इन अंगों की सामान्य कार्यप्रणाली के लिए अत्यन्त आवश्यक है । वैसे यह श्वसन विधि कई प्रकार की मानसिक असामान्यताओं को दूर करने का एक चिकित्सकीय औजार बन चुकी है। आमतौर पर हाईपरटेन्शन से मुक्ति के लिए इसको शव आसन के साथ अवश्य किया जाता है । आज ध्यान की कई ऐसी चिकित्सकीय विधियां प्रचलित हैं जिनमें यह प्रथम सीढ़ी है। श्वसन की दूसरी आदत में पेट नहीं के बराबर हिलता है । श्वास लेते समय छाती फूलती है एवं छोड़ते समय सिकुड़ती है । इस प्रक्रिया में मुख्य भूमिका डायफ्राम की न होकर छाती गुहा व स्कन्ध पेटी की आंतरिक मांसपेशियों की होती है। इसमें फेफड़ों का केवल क्षैतिज विस्तार होता है । इससे उनमें वायु का आदान-प्रदान केवल ऊपरी भागों में ही अधिक होता है। जबकि रक्त की अधिक मात्रा निम्न भागों में मौजूद होती है । अतः रक्त का ताजा हवा के साथ सम्पर्क बहुत कम हो पाता है । यह सबसे कम कुशल आदत मानी गई है। चूंकि इस विधि में डायफ्राम का उपयोग नगण्य होता है अतः उसकी सामान्य प्रत्यास्थता कम हो जाती है । मनोविश्लेषकों का मत है कि भय, क्रोध एवं सैक्स जैसे मानसिक आवेग शरीर के डायफ्राम के नीचे वाले भागों से सशक्त रूप से सम्बद्ध हैं। डायफाम का कड़ापन वास्तव में व्यक्ति को इन आवेगों से विलग कर देता है। इससे इन आवेगों के प्रति व्यक्ति की सामान्य चेतना कम हो जाती है जिससे ये अनियंत्रित एवं व्यक्ति पर हावी हो जाते हैं । इसके अलावा पेट को मिलने वाला उपरोक्त लयबद्ध उद्दीपन खत्म हो जाने से वहां कब्ज जैसी सामान्य गड़बड़ियां भी हो सकती हैं। तीसरी श्वसन की आदत हमारे समाज में सर्वाधिक देखी गई है । आप देखेंगे कि अधिकांश व्यक्तियो में श्वास के समय छाती फूलती है परन्तु पेट सिकुड़ता है तथा प्रश्वास के समय छाती सिकुड़ती है एवं पेट फलता हैं । इसके बारे में इतना ही कहना पर्याप्त है कि यह वास्तव में अपनी ही प्राणवायु के विरुद्ध स्वयं की लड़ाई है। ऊपर से वायु का प्रवेश एवं नीचे से डायफ्राम की टक्कर । सबसे कम दक्ष एवं कई सानसिक व हृदय रोगों में बहुत मददगार है यह आदत । सही श्वसन प्रक्रिया अधिकांश व्यक्तियों में बाद वाली दोनों आदतों का आदि देखा जा सकता है। इनके सुधार के लिए तथा कई अन्य शारीरिक व मानसिक विकृतियों एवं व्याधियों से मुक्ति के लिए श्वसन सम्बन्धित उपचार, जो अधिकांश थेरापिस्ट्स सुझाते हैं उनका निचोड़ हम निम्न चार बातों में दे रहे हैं। १. सर्वप्रथम तो हम सबको डायफ्रामिक श्वसन को अपनी सामान्य आदत बना लेना चाहिए । इससे हम फेफड़ों पर नियंत्रण रखना सीख जाएंगे जो वास्तव में इस जीवन चक्र की धुरी है। इसके लिए लगभग १० दिन तक रोजाना आधे घंटे निम्न अभ्यास करने की आवश्यकता है । उसके उपरान्त यह सामान्य आदत बन जाती है। अभ्यास:-समतल एवं शुद्ध, वायुयुक्त शांत स्थान पर दरी या चादर बिछाकर तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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