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________________ २०. जुम्मणी-इस विद्या के प्रयोग से सभी उपस्थित उवासी लेने लग जाते २१. स्तम्भनी-इस विद्या के प्रयोग से व्यक्ति स्तम्भित हो जाता है, हिल डुल नहीं सकता। २२. श्लेषणी-इस विद्या के प्रयोग से व्यक्ति जिस आसन पर बैठता है उस आसन से उसकी जंघा को (उरु को) चिपका दिया जाता है । २३. आमयकरणी- रोग उत्पन्न करने वाली विद्या । इस विद्या के प्रयोग से सामने वाला व्यक्ति रोगग्रस्त हो जाता है अथवा सम्पूर्ण ग्राम या राष्ट्र रोगग्रस्त हो जाता है । २४. विशल्यकरणी-शल्य-रहित करने वाली विद्या । जो शल्य अंग में प्रविष्ट हो जाता है वह रक्त का अवरोध पैदा करता है। उससे अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। उस शल्य को विद्या के जाप से बाहर निकाला जाता है और औषधि के द्वारा भी निकला जा सकता है । २५. प्रकामणी --भूत, पिशाच, डाकिन आदि को दूर करने वाली विद्या । २६- अन्तर्धानी --अदृश्य होने वाली विद्या या अदृश्य होने की गुटिका, अंजन आदि । ये गुटिकायें दो प्रकार की होती हैं । एक गृटिका मुंह में रखने से आदमी धीरे-धीरे कुछ ही क्षणों में अदृश्य हो जाता है पर उसकी परछाई दिखती है । दूसरे प्रकार की गुटिका से परछाई नहीं दिखती। २७. कम्पनी विद्या ---इस विद्या से गृह, वृक्ष और व्यक्ति को कम्पित किया जा सकता है ।२७ व्यवहार भाष्य में वणित व्यवहार भाष्य में कुछ विद्याओं का वर्णन मिलता है। जैसे --आदर्श (दर्पण) विद्या, आन्तपुरिकी विद्या, चापेटी विद्या, तालवृन्त विद्या, दर्भविद्या, दूतविद्या, व्यजन विद्या, तालोद्घाटिनी आदि ।२८ आदर्श विद्या-जिस विद्या से दर्पण की भांति रोग स्पष्ट जानकर रोगी को स्वस्थ किया जाता है वह आदर्श विद्या है। आन्तपरिकी विद्या-जिस विद्या से रोगी का नाम लेकर अपने अङ्ग का अपमार्जन कर रोगी को स्वस्थ किया जाता है वह अन्तः पुरिकी विद्या है।" चपेटी विद्या -रोगी को स्वस्थ करने के लिए जिस विद्या से दूसरों को चपेटा मारा जाता है वह चपेटी विद्या है।" तालवृन्त विद्या -जिस विद्या से तालवन्त आमन्त्रित कर रोगों को अपमाजित कर रोगी को स्वस्थ किया जाता है । ३२ ___ दमं विद्या-जिस विद्या से दर्भ (मूंज) को अभिमन्त्रित कर रोगी का अपमार्जन कर रोग को नष्ट किया जाता है वह दर्भ विद्या है । दूतविद्या--जिस विद्या से आये हुए के दंश-स्थान का अपमार्जन किया जाता है । उससे दूसरे का दंश स्थान शांत हो जाता है । बाण्ड २३, बंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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