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२. दुभंगाकर-जिससे सौभाग्य को दुर्भाग्य में बदला जा सके वह दुर्भगाकर विद्या
३. गर्माकार--जिससे संतानोत्पत्ति की जा सके । यह कृत्रिम गर्भाधान की विद्या
४. मोहनकर-जिससे व्यक्ति को सम्मोहित किया जा सके वह मोहनकर विद्या
५. आथर्वणी-अथर्ववेद संबंधित विद्या। ६. पाकशासनी-इंद्र से संबंधित विद्या-इन्द्रजाल ।
७. द्रव्यहोम -कणेर के फूलों या मधु, घत, चावल आदि द्रव्यों के द्वारा हवनपूर्वक संपादित की जाने वाली उच्चाटन आदि विद्या ।
८. वैताली-यह वैताल को सिद्ध करने पर होने वाली विद्या है। इसके अक्षर निश्चित होते हैं । कुछेक जाप करने पर यह सिद्ध हो जाती है । इसके द्वारा दंड उठकर इष्ट दिशा में चला जाता है।"
९. अर्द्धवैताली-चैताली द्वारा उत्थापित दंड को उपशमन करने वाली विद्या । चणिकार के अनुसार इसका अर्थ है-पहले कोई समस्या दी जाती है । फिर उसका उत्तर पूछा जाता है । इस विद्या का अधिष्ठता शुभाशुभ बताता है ।
१०. अवस्वापिनी-जिस विद्या से जागृत व्यक्ति को सुलाया जा सके वह अवस्वापिनी है।
११. तालोद्घाटिनी-जिस विद्या से कपाट या तालों को खोला जा सके वह तालोद्घाटिनी है ।
१२. श्वपाकी-मातंगी विद्या । मातंग ऋषि द्वारा आविष्कृत विद्या का नाम है मातंगी विद्या । इस विद्या का प्रयोग ग्रहावेश-निवारण के लिए होता था।"
१३. शावरी-शबर जाति की या शबर भाषा में निबद्ध विद्या ।१५
१४. द्राविडी-वामिली-द्राविडी भाषा में निबद्ध विद्या । तमिल, तेलगु और कन्नड ये तीन द्राविडी भाषाएं हैं ।५ ।
१५. कालिगी-कलिंग देश की भाषा में निबद्ध विद्या ।"
१६.-१७. गौरी गान्धारी-मातंगी विद्या। निशीथ चूणि के अनुसार ये दोनों मातंग विद्याएं हैं। इन विद्याओं की साधना को लोक-गहित माना जाता था । ये इतनी कुत्सित होती थी कि दूसरों को बताने में लज्जा का अनुभव होता था । वे इच्छित काम पूरा करने में समर्थ होती थी किंतु कार्य की संपन्नता के बाद इनसे छुटकारा पाना सहज नहीं था।"
१८. अवपतनी-इस विद्या से अभिमंत्रित होकर व्यक्ति स्वयं नीचे आ जाता है या दूसरों को नीचे उतार देता है ।
१९. उत्पतनी-इस विद्या के द्वारा व्यक्ति स्वयं ऊपर उठ जाता है और दूसरों को ऊपर उठा देता है।" १५८
तुलसी प्रथा
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