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________________ आचारांग में प्रेक्षाध्यान के सत्र ] साध्वीश्री स्वस्तिका साधना व्यक्ति की आध्यात्मिक उपलब्धि का विशुद्ध उपक्रम है जिसमें साधक अनासक्त भाव से संसार की यथार्थता पर अनुचिन्तन करता है और निर्वाण-प्राप्ति को लक्ष्य बनाता है। निर्वाण-प्राप्ति का क्रम प्रेक्षा से प्रारम्भ होता है। प्रेक्षा की यात्रा देखने से शुरू होती है। इसका ध्येय सूत्र है ----अपने द्वारा अपना दर्शन । दूसरे शब्दों में आत्मा द्वारा आत्मा की होने वाली विविध पर्यायों का दर्शन । चेतना का लक्षण है ज्ञान और दर्शन । जानना और देखना । आचारांग में निर्दिष्ट साधना पद्धति का मूल भी जानना देखना है। इसीलिए स्थान-स्थान पर जाणह, पासह, दंसी, परमदंसी, संपेहा, पेहमाणे, पडिलेहा' आदि शब्दों का उपयोग किया गया है। राग व द्वेष की चेतना से परे हटकर देखना ही यहां काम्य है। आचारांग कहता है...- से हु दिठ्ठपहे मुणी जस्स णस्थि ममाइयं" अर्थात् प्रेक्षा की साधना देखने की साधना है । विषयों को सम्यक् जानने व देखने वाला ही आत्मवित्, ज्ञानवित्, वेदवित्, ब्रह्मवित होता है । विषयों की आसक्ति आत्मज्ञान में बाधक है। प्रेक्षा पद्धति इसके लिए कई पड़ावों की यात्रा स्वीकार करती है । आयारो में इन बिंदुओं का कहां तक समावेश है, यही प्रस्तुत प्रसग में विवेच्य है। १. कायोत्सर्ग ___ यह साधना पद्धति का आधार स्तम्भ है क्योंकि काय की स्थिरता सधे बिना मन व वाणी की साधना असंभव है। भगवान् महावीर ने काय-स्थिरता की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहा है-काय गुत्तियाए जीवे संवरणं जणयई ।' कायोत्सर्ग अध्यात्म विकास की प्रथम भूमिका है। आचारांग कहता है-कायोत्सर्ग करने वाला ही धर्म के मर्म को जानता है तथा ऋजु होता है-'नरा मुयच्चा धम्म विउति अंजु" यहां मुयच्चा का अर्थ शवासन या कायोत्सर्ग से है। कायोत्सर्ग में साधक अन्यथा व्यवहार करता है ----'अण्णहाणं पासए परिहरेज्जा।" कायोत्सर्ग की साधना से व्यक्ति शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक समस्याओं से मुक्त होता हुआ जीवन को सार्थक बना लेता है। २. अन्तर्यात्रा ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण व अन्तर्मुखता के विकास के लिए अन्तर्यात्रा सशक्त आलम्बन बनती है। इसमें चित्त को शक्ति केंद्र से ज्ञान केंद्र तक ले जाते हैं। इसे खण्ड २३, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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