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________________ केंद्रीय संस्थान कह सकते हैं। अंतर्यात्रा की आवृत्ति करने से नाड़ी तंत्र की प्राणशक्ति विकसित हो जाती है। प्रेक्षा की यह अंतर्यात्रा आचारांग में 'पणया वीरा महावीहिं" सूत्र में है। महापथ का अर्थ है --- कुण्डलिनी व प्राणधारा । ममत्व ग्रंथि का छेदन करने वाला साधक ही इस पथ की यात्रा कर सकता है। यह एक संतुलित व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया है। ब्रेन व रीढ़ की हड्डी में ग्रे व ह्वाइट मेटर होता है। जब दोनों संतुलित रहते हैं । तब अंतर्यात्रा के माध्यम से संतुलित व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकता है। ३. श्वास प्रेक्षा प्रेक्षाध्यान के साधक के लिए एक पुष्ट आलम्बन बनता है श्वास । दीर्घकालिक अभ्यास के द्वारा श्वास की दर कम करने से समता, अप्रमाद, एकाग्रता व जागरूकता जैसे गुण प्रस्फुटित होते हैं। आचारांग ऋषि कहता है(i) धीरे मुहुत्तमवि णो पमायए; (ii) लामोत्ति न मज्जेज्जा अलाभो त्ति ण सोयए; (ii) पमाइ पुणरेइ गन्मं ।' हमारे फेफड़े ६-७ लीटर हवा भरने में सक्षम हैं किंतु हम उस क्षमता का पूरा उपयोग नहीं कर पाते हैं। अगर हम श्वसन तंत्र का उपयोग सही ढंग से करते रहें तो हमारे भीतर अप्रमाद, समता आदि गुण विचरण करते हुए दिखाई देंगे। ४. शरीर प्रेक्षा शरीर प्रेक्षा का अर्थ है-प्रियता-अप्रियता से ऊपर उठकर वर्तमान क्षण को देखना। आयारो में शरीर के समस्त अंगों को देखने का निर्देश मिलता है-- आयत चक्खू लोग विपस्सी लोगस्स अहो मागं जाणइ उड्ढं भागं जाणइ तिरियं भागं जाणइ ।' चैतन्य की अभिव्यक्ति शरीर के माध्यम से होती है। शरीर की विपश्यना करने वाला शरीर के भीतर पहुंचकर धातुओं को देखता है और करते हुए विविध स्रोतों को भी देखता है। शरीर प्रेक्षा से प्राणशक्ति का संतुलन होता है। बहुत बार वैज्ञानिक उपकरण द्वारा परीक्षण करने पर लगता है कि कोई बीमारी नहीं है। व्यक्ति फिर भी स्वस्थ महसूस नहीं करता। इसका कारण होता है-प्राण का असंतुलन । शरीर प्रेक्षा द्वारा इस दिशा में गति करके शरीर को स्वस्थ बनाया जा सकता है। ५. चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा चैतन्य केन्द्र शरीर के वे भाग हैं जहां चेतना घनीभूत होकर रहती है। योग की भाषा में ये योगचक्र हैं । ये केन्द्र अन्तःस्रावी ग्रंथियों के स्थान हैं । चैतन्य केंद्रों का वर्णन नदी में अवधिज्ञान के प्रसंग में मिलता है। आचार्य मल्लिसेन ने इसके लिए मर्म शब्द का प्रयोग किया है । चैतन्य केंद्रों पर ध्यान करने से अतीन्द्रिय चेतना का तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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