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________________ पुण्य-श्लोक मुनि पुण्यविजयजी की जन्म-शती का हजारीमल बांठिया वर्तमान शती में जैन साहित्य और जैन पुरातत्त्व के उद्घाटन और प्रकाशन में जैनाचार्य श्री विजयधर्म सूरि (काशी वाले), पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजय और आगम प्रभाकर मुनि पुण्य विजय-इस त्रिमूर्ति ने अथक परिश्रम किया । इन तीनों की जन्म-शती वर्ष बीत चुके हैं और उनके पुण्य प्रताप से जैन साहित्य एवं जैन पुरातत्त्व पर उत्तरोत्तर शोध और प्रकाशन हो रहा है । ___इस त्रिमूर्ति में तृतीय-मुनि पुण्यविजय का जन्म वि० सं० १९५२ कार्तिक शुक्ल पंचमी को कपडवंज (गुजरात) में डाह्याभाई दोशी के घर माता माणेक बहिन की कुक्षी से हुआ। आपका जन्म नाम मणिलाल था । कैसा दुःखद पर सुखद संयोग हुआ। पिताजी बम्बई में थे । बालक मणिलाल छह मास का पालने में झूल रहा था----मां नदी पर कपड़ा धोने के लिये गई हई थीकपड़वंज के मोहल्ला चिंतामणि पार्श्वनाथ जैन मन्दिर की खड़की में अचानक आग लग गई ---डाह्याभाई का मकान भी जल कर भस्मीभूत हो गया --एक अदम्य साहसी व्यक्ति प्रज्ज्वलित लपटों में, घर में घुसकर बालक मणिलाल को उठा लायाबालक को अभयदान मिला और यही बालक आगे जाकर मुनि पुण्यविजय बना । ज्ञानपंचमी के दिन जन्म होने से 'ज्ञान' का सागर बना । इस घटना के बाद-यह परिवार बम्बई चला गया-पिता की मृत्यु हो गई-मां ने इस बालक को भगवान् महावीर शासन को समर्पित कर दिया-छाणी (बड़ोदरा) में प्रवर्तक मुनि कान्तिविजयजी के के चरणों में समर्पित कर १३ वर्ष की वय में वि० सं० १९६४ माघ वदी ५ (गुजराती) के दिन-गुरु चतुरविजयजी का शिष्य बना दिया और इनका नाम मुनि पुण्यविजय रखा गया और स्वयं भी महावीर-शासन में दीक्षित होकर-साध्वी रतनश्री बन गई। प्रगुरु मुनिश्री कांतिविजयजी और गुरु मुनिश्री चतुरविजयजी ने बाल मुनि पुण्यविजय को अपूर्व ज्ञान पं० सुखलालजी जैसे विद्वानों से दिलाया-स्वयं ने भी शास्त्रों के सम्पादन में संशोधन में रुचि होने के कारण-बाल मुनि पुण्यविजय की दिशा बदल दी। पाटण में-प्रगुरु ने वृद्धावस्था के कारण १० चातुर्मास किये पाटण के समस्त ज्ञान-भण्डारों का एकीकरण कर हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान मन्दिर की स्थापना की और वहां सम्पादन-संशोधन का कार्य हो सके उसकी समुचित व्यवस्था कराई । डा० भोगीलाल सांडेसरा, श्री जगदीशचन्द्र जैन, विक्टोरिया म्यूजियम के डाइरेक्टर श्री शांतिलाल छगनलाल उपाध्याय जैसे विद्वान आप श्री के ही शिष्य थे खण २३, अंक १ १४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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