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जननीति का अंग नहीं है । जननीति से वैध-हित प्रभावित नहीं होने चाहिए और यदि होते हैं तो वह वर्गहित नीति कही जाएगी, जननीति नहीं । व्यक्ति की चिंता किए बिना पर्यावरण की चिंता करना तानाशाही होगी। व्यक्ति रहे, उसकी रोजी रहे और पर्यावरण भी रहे, यही सम्यक् दृष्टि है, क्योंकि आजीविका में कतरब्योत अनीति होगा। बिना सामाजिक न्यायसंगतता के पर्यावरण को टिकाऊ नहीं बनाया जा सकता है । जितना जरूरी पर्यावरण है, उतना ही जरूरी व्यक्ति भी है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि गरीब आदमी अपनी अनजानता और लाचारी में पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है, जबकि बड़ा आदमी यही काम अपनी सामर्थ्य और समझ से करता है । इस मसले पर अपने नजरिये को निरापद बनाने के लिए इस पक्ष को विचार में लेना भी प्रासंगिक होगा।
पर्यावरण एक अंतःसंबंधी विषय है, एक निरन्तर चलने वाली एकता है, अतः इस विषय पर हमारा खानापूरी वाला रवैया हमारे ही प्रयासों और प्रश्नों को भौंथरा बना डालेगा । वसुन्धरा विषकन्या भी है। प्रकृति रचती है, तो विनाश करना भी जानती है । यह एक चेतावनी है । अपने ही कार्यों के परिणामों के प्रति उदासीनता और अनभिज्ञता है अनर्थ होता है और यदि ऐसा हुआ तो यह धरती रौरव नर्क बन जाएगी और पर्यावरण लिजलिजा। इसलिए यह आवश्यक है कि पर्यावरण संबंधी कानूनों को केवल छलावा न बनाया जाए और न कोई इनमें छेद ही शेष रहने दिया जाये । वांशिगटन के 'पर्यावरण कानन संस्थान के अध्यक्ष विलियम फटेल का कहना है कि-"राजनीतिज्ञ नागरिकों के असंतोष को गलत दिशा देने के लिए पर्यावरण के बारे में भ्रांतियां फैलाने की कोशिश करते हैं। उनके अनुसार पर्यावरण की हानि रोकने के लिए जनता का महज जानकार होना पर्याप्त नहीं है, उसे उद्धेलित भी होना पड़ेगा।" राजनीतिक दलो को अपने अजेंडा में पर्यावरण को शामिल करना चाहिए, क्योंकि तभी प्रदूषण को चुनावी मुद्दा बनाया जा सकेगा । अगर यह नहीं किया गया तो पर्यावरण और व्यक्ति दोनों की मृत्यु की आहटें तेज होती जाएंगी। माननीय उच्चतम न्यायालय ने न्यायिक-सक्रियता प्रदर्शित करते हुए जो कुछ फैसले इन दिनों दिए हैं, उनका भी इस दिशा में सकारात्मक और व्यापक असर होगा। एम. एन. बक ने लिखा है कि -"पर्यावरण प्रेमी यह नहीं कहते कि हम आदिम अव्यवस्था में पहुंच जाएं । केवल यह कहते हैं कि पर्यावरण प्रणाली में बाधा से विकास के लाभ ही समाप्त हो जाएंगे। इसलिए गुरुदेव टैगोर के शब्दों के -"जे माटी आंचल पेटे जेथ आछे मुखेर पाते', (उस माटी को पहचानने की जरूरत है, जो आंचल फैलाए ताक रही है)। सीधी-सी बात यह है कि समस्या को समझे बिना समाधान कतई बेअसर होगा।
संदर्भ १. चातक डॉ० गोविन्द-पर्यावरण और संस्कृति का संकट-तक्षशिला प्रका___ शन, नयी दिल्ली, १९९२, पृष्ठ ३४ । २. व्यास हरिश्चन्द्र तथा व्यास कैलाश चन्द्र-मानव और पर्यावरण, विद्या विहार, नयी दिल्ली, १९९३, पृष्ठ २९ ।
खण्ड २३, अंक १
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