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________________ सर्वांगीण विकास की समिधा से जोड़ने का आज कोई विकल्प नहीं रह गया है। बुनियादी सवाल प्राकृतिक घटकों के असंतुल-संतुलन का है, क्योंकि विकास और पर्यावरण-संरक्षा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । इसी वजह से औद्योगिक क्रांति के परिणामों और पर्यावरणीय विचारों में संतुलन जरूरी है । "धर्मो रक्षति रक्षितः" की तर्ज पर जो पर्यावरण की रक्षा करता है, पर्यावरण उसकी रक्षा करता है। सन् १९७२ के स्टोकहोम सम्मेलन ने पर्यावरण को अक्षुण्ण रखते हुए विकास (यानी “पर्याविकास') की धारणा को जन्म दिया था। इस सम्मेलन का सार यह था कि चूंकि अतारतम्यता हिंसा को प्रवृत्त करती है, अतः प्रकृति से तारतम्यता जरूरी है। शायद यही कारण है कि यूनेस्को की प्रस्तावना में यह लिखा गया है कि -"युद्ध मानव मस्तिष्क से शुरू होते हैं, अतः शांति भी इसी में होना आवश्यक "गांवों को ईश्वर ने बनाया है और शहरों को मनुष्य ने"- यह कहावत है, तो पर्यावरण का यथार्थ भी है । पर्यावरण में आ रही गिरावट की मुख्य वजह अनुशासन की कमी है । इसे रोकने के लिए कार्यलक्षी वैज्ञानिक दायित्व और विश्वव्यापी संवर्धन आंदोलन की आवश्यकता है । विकास की अंधी-दौड़ में गुम हो गयी बुनियादी मान्यताओं की ओर लोटने का समय अब भी है । भोगवादी पाशविकता से मुक्ति का श्रेष्ठ विकल्प श्रम का मानवीकरण होगा। आज अधिकांश प्रदूषण मानवकृत है । अनावश्यक भौतिक परजीविता इस समस्या की जड़ है। आनॉल्ड टायनबी लिखते हैं किसभ्यताओं के पतन का कारण बाहरी आक्रमण नहीं, वरन् आंतरिक विघटन है ।" प्राकृतिक असंतुलन पर्यावरण की निर्मलता को नष्ट करके उसे अप्राकृतिक बना डालता है । यह कोई कम गंभीर बात नहीं है कि दुनिया का पर्यावरण-बजट उसके सैन्य-बजट के आधे से भी कम है । हाल ही में राजधानी में सम्पन्न पांचवें विश्व पर्यावरण कांग्रेस में न्यायमूर्ति कुलदीपसिंह ने कहा भी है कि बजट का एक भाग प्रदूषण नियंत्रण के लिए आवंटित किया जाना चाहिए । आज इस आंदोलन को पुनर्जागरण आंदोलन का रूप देने की जरूरत है । ५ जून को मनाये जाने वाले विश्व पर्यावरण दिवस का एक ध्येय इसी जनचेतना को जागृत करना है। एक सम्मिलित सोच इस संतुलन में सहयोगी बन सकता है । टेक्नोस्फियर और बायोस्फियर में ताकिक संतुलन हो और प्रकृति के संसाधनिक औपनिवेशीकरण पर प्रभावी रोक लगे, तभी औद्योगिक सभ्यता से प्रकृति का सही समीकरण बन सकेगा । अभाव कौशल और प्रबंध का है, जिससे छुटकारा पाने का समय तेजी से निकला जा रहा है । असंतुलन प्रकृति पर व्यक्तिगत अधिकार की प्रवृत्ति का ही प्रतिफल है, इसलिए साधनों का मितव्ययी उपयोग और उनकी संरक्षा का दायित्व दोनों ही बातें बराबरी से आवश्यक हैं । गुणात्मक लालसा के लिए प्रकृति के अव्यवस्थित संदोहन के परिणामस्वरूप ही आज वह नैसर्गिक संक्रम उल्टा हो गया है, जिसके अनुसार सृष्टि में संख्यात्मक रूप से वनस्पति के उपरांत मांसाहारी और फिर मनुष्य आते थे । प्रकृति में हमारे स्वार्थी दखल का यही नतीजा होना था। एक पक्ष और है । किसी भी कार्रवाई के सभी संभावित नतीजे न देख पाना तुमसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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