SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है। डॉ. राधाकृष्णन ने कहा है कि-भौतिक सफलता के कारण हमारे मन में अभिमान की वह मनोदशा उत्पन्न हो गयी है, जिसके कारण प्रकृति का मानवीकरण करने के बजाय हमने उसका शोषण प्रारम्भ कर दिया है। सामाजिक जीवन ने हमें साधन तो दिये, पर लक्ष्य नहीं । यही निहितार्थ चिंता पैदा करने वाला है । स्वाधीनता के बाद भी बर्तानवी हुकमत और प्रौद्योगिकी का जुआ न उतार फैकने का नतीजा हमें भुगतना पड़ा है और यही वजह है कि अविराम-संघर्ष की संभावनाएं अभी-भी शांत नहीं हुई हैं। हमारे पारम्परिक पर्यावरण को पश्चिमी कलुषित छाया ने ही मला किया है । यानी समस्या जितनी पर्यावरण की है, उतनी ही भौतिक सभ्यता के बुरे परिणामों की भी है। विकास के लिए सीमातीत तकनीक का प्रयोग हमेशा पर्यावरण के अव्यवस्थापन को जन्म देता है। प्रौद्योगिकी को विकास का मेरूदण्ड मानने वाले लोग पर्यावरणवादियों पर विकास-विरोधी होने का आरोप सहजता से लगाते रहते हैं, किन्तु मान्य यथार्थ यह है कि पर्यावरण क्षरण से शक्ति का क्षय होता है और अक्षमता बढ़ती है । और अक्षमता से अर्थव्यवस्था दुष्प्रभावित होती है, यह कोई कहने की बात नहीं है। इसलिए दीर्घकालीन योजनाओं और पर्यावरण में एक धना-रिश्ता जरूरी है तथा विकास की परिभाषा एवं इसके प्रति रूढ़िवादी नजरिये में बदलाव और बेजा-विकास से परहेज भी जरूरी है। तय यह करना है कि हमें विकास किसका चाहिए -अपना और समाज का या कि केवल यंत्रों का ? यदि विकास का उत्सर्जन परिवेशिकी पर हमला करता है तो ऐसा विकास हमारे लिए धेले-भर का भी नहीं है । विकास की विसंगति ने सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक पर्यावरण को बुरी तरह से प्रभावित किया है, आर्थिक पर्यावरण को तो किया ही है। विकास के रास्तों को हम बन्द नहीं कर सकते हैं, इसकी गति को भी नहीं मोड़ सकते हैं, किंतु इनसे भटकने की चिन्ता तो कर ही सकते हैं। आइंस्टीन ने एक बार कहा था कि-"लगभग सभी वैज्ञानिक आर्थिक दृष्टि से पूरी तरह आश्रित हैं और ऐसे वैज्ञानिकों की संख्या बहुत थोड़ी है, जिन्हें सामाजिक उत्तरदायित्व का थोड़ाबहुत बोध हो।" विकास का लाभ अल्पसंख्यकों को मिले और बहुसंख्यक इसके मोहताज बने रहें, यह एकांगी दृष्टि है, समग्र विकास नहीं, किन्तु वर्तमान विकास का यही दुर्भाग्यपूर्ण अर्थ शेष रह गया है। सी. जी. जुंग ने "मार्डन मैन इन सर्च आफ ए सोल' में लिखा है कि-"यह विकास मानव की शुभाकांक्षाओं की दृष्टि से अधिकतम निराशाजनक है । आधुनिक मनुष्य को मनोविज्ञान की भाषा में कहे तो लगभग प्राणान्तक आघात पहुंचा है और वह घनी अनिश्चितता में जा पड़ा है ।" इसलिए विकास का पारिस्थितिकी और अर्थ शास्त्र (Ecology and Economy) में तालमेल एक निपट अनिवार्यता है । दरअसल विकास प्रकृति को उपयोगितावादी दृष्टि से देखता है । नतीजा यह होता है कि वह सारी आंतरिक शक्ति नष्ट हो जाती है जो जीवन को अर्थवत्ता प्रदान करती है । औद्योगिक संस्कृति के घटाटोप में आंग्ल कवि लुईमैक्नीस की कविता "अजन्मे शिशु की प्रार्थना" इन्हीं विकृतियों को नंगा करती है। इसलिए पर्यावरण को खण्ड २३, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy