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________________ पर्याय भी है। इसे ही हमारी प्राचीन परम्परा में प्रकृति कहा गया है। यह प्रकृति वस्तुओं का समूह-मात्र नहीं है । यह आनुवंशिकता की तरह एक संपूर्ण व्यवस्था या तंत्र है। यह हमारे ढांचे में नहीं ढल सकती, हमें ही इसके ढांचे में ढलना होगा। इसके प्रति हमारी दृष्टि और दृष्टिकोण शुरू से ही संरक्षण और श्रद्धा का रहा है । हमारी संस्कृति पर्यावरण की सहयोगी संस्कृति है। । प्रकृति को संपूर्ण मानते हुए हमने अपने को इसका न्याती और संतान माना है, स्वामी नहीं। हमारी संस्कृति के आधार दोहन और पोषण थे। किसी भी तरह के शोषण को इसमें स्वीकृति नहीं थी। हमारी परम्परा का प्रकृति से कोई टकराव नहीं है । इसी परम्परा में उत्तर तलाशने की आज आवश्यकता है, क्योंकि परम्परा का अर्थ हमेशा प्रतिगामी नहीं होता है।' इतिहास और संस्कृति का विकास पर्यावरण से ही हुआ है। दूसरे शब्दों में पर्यावरण हमारी संस्कृति का स्रोत है, इसलिए हमें इसे सुरक्षित भी रखना है और पवित्र भी । वेदों में कहा गया है कि --- "यो देवोऽग्नी योऽप्सु यो विश्वं भूवनमाविवेश, __ यो औषधिषु यो वनस्पतिषु तस्मै देवाय नमो नमः ।" यानी जो अग्नि, जल, आकाश, पृथ्वी और वायु से आच्छादित है तथा जो ओषधियों एवं वनस्पति में विद्यमान है, उस पर्यावरणीय-देव को हम नमस्कार करते हैं। सांख्य-सिद्धांत के अनुसार सृष्टि पांच तत्त्वों से बनी है। अफलातून की 'Republic' में की गई कल्पना के अनुसार भी परमात्मा की देह पृथ्वी, मस्तक स्वर्ग, आंखें, सूर्य और चन्द्रमा तथा मन आकाश है । पंचतत्त्वों की यही व्यवस्था हमारे यहां पारस्परिक अंतःनिर्भरता और गत्यात्मक संतुलन की व्यवस्था है। इसी कारण भारतीय जीवन वस्तुतः प्रकृति पर आधारित जीवन है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भारतीय संस्कृति को 'आरण्यक संस्कृति' की जो उपमा दी है, वह संभवतया इसीलिए। डॉ० छगन मोहता के अनुसार-"हमारी अर्थव्यवस्था की यजमानी प्रवृत्ति पर्यावरण से ही संबंधित थी।" कालांतर में मानवीय श्रम दम तोड़ता गया और यांत्रिकता हावी होने लगी। इस तरह हमारी पर्यावरण-समस्या अतिऔद्योगीकरण का परिणाम नहीं, वरन विकास की अपूर्णता का प्रतीक है। भौतिकतावाद इसका कारण है और प्रदूषण इसका परिणाम । यह एक कड़वा सच है कि यदि विकास के पैटर्न में बदलाव नहीं लाया गया तो अगले पचास वर्षों में आसमान का रंग तक बदल जाएगा। ऐसे में नैतिकता के बुनियादी धर्म के लिए कोई गुन्जाइश नहीं बचती है। व्यक्ति के अनुसंधान राजनीतिक रूप से प्रदूषित (और केन्द्रीकृत भी) अर्थसत्ता की परिपुष्टि के लिए होते हैं और दुष्फलत: आसुरी वृत्तियों का दबाव बढ़ता जाता है । ऐसी प्रौद्योगिकी के निष्कर्ष समाजोन्मुखी नहीं होते । जवकि एक समय बौद्धिक निष्ठाएं केवल समष्टि के लिए होती थी । विकास का अर्थ उचित विकास से तो है, मगर वह सबके लिए होना चाहिए, कुछ-भर के लिए नहीं। विकास का प्राथमिक उद्देश्य विषमता कम करना होता है, उसे बढ़ाना नहीं । असम-विकास बेमानी कम, घातक अधिक होता तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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