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________________ पर्यावरण विकास का अनिवार्य सोपान है । "यह धरती सबकी जरूरतें पूरी कर सकती है, मगर किसी एक का भी लालच यह पूरा नहीं कर सकती". महात्मा गांधी के इस कथन में पर्यावरण के प्रति जागरूकता प्रदर्शित हुई है। पर्यावरण की चिता मूलरूप में संस्कृति की चिता है और इसीलिए इसमें सफलता की संभावनाएं केवल तभी होंगी, जब राष्ट्रीय पर्यावरण की नीति से जनता को सीधे तौर पर जोड़ा जाएगा। इसके प्रति सचेत होना आज एक बड़ी चुनोती है । इस विषय पर हमारी चिंताएं वैश्विक सोच का ही अनुक्रम है । पर्यावरण सुरक्षा के लिए कुछेक आंदोलन आज क्रियात्मक रूप से जीवित हैं । परिवर्तन का उद्घोष हमेशा से मुट्ठी भर लोग ही कर पाते हैं; इसलिए यह एक शुभ संकेत है । ये आंदोलन अल्लटप्पू नहीं हैं । इनके पीछे चितन है, मनन है । इनका निष्कर्ष यह है कि पहले मनुष्य केन्द्र में था, मगर अब पर्यावरण को केन्द्र में रखे बिना काम नहीं चलेगा | श्रीमती इन्दु पाण्डेय अपनी प्रज्ञा और विवेक के कारण मनुष्य निर्विवादतः प्रकृति की सर्वोत्कृष्ट रचना है और पर्यावरण का चौधरी होने के नाते हर अच्छे-बुरे का जिम्मा भी उसी का है । जैविक रूप से भी प्रकृति का अटूट अंग होने के कारण इसके प्रति उसकी दृष्टि सहयोगी की, दर्शन समग्रता का और भूमिका स्वसंतुलक की होनी चाहिए। पर्यावरण का अर्थ और आशय इतना ही है । जैसे-जैसे यह संकट बढ़ रहा है, हमारे जीवन का ग्राफ घटता जा रहा है। आज सब कुछ तो है, लेकिन जिंदगी जैसे कहीं खो गयी है । इसलिए पर्यावरण - संस्कृति को समझना आज कुछ बड़े कामों में से एक होना चाहिए । अस्तित्व से जुड़ी ये बातें हमारे लिए सबसे ज्यादा महत्त्व की हैं, क्योंकि साफ हवा में जन्म लेना और जिन्दा रहना मनुष्य का बुनियादी अधिकार है । प्रश्न यह है कि यदि हमारे सारे सिद्धांत सही हैं तो उनके परिणाम गलत क्यों निकलते उत्तर यह है कि हम अब तक एक ऐसी संस्कृति का विकास नहीं कर सके हैं, जिसे पर्यावरण की संस्कृति कहा जा सके या ऐसे पर्यावरण को विकसित नहीं कर सके है कि जिसे संस्कृति का पर्यावरण बताया जा सके । हैं ? वर्डसवर्थ ने लिखा है कि- " A single spirit from vernal wood can tell more of man than all the sages can. " ( प्रकृति देवी एक बार में ही मनुष्य को उसके सार्थक जीवन के लिए इतना उपदेश दे सकती है, जितना कि पूरे जीवनकाल में उसे संतों से भी उपलब्ध नहीं हो सकता ) । पर्यावरण प्रकृति का अनुशासन है, उसका खण्ड २३, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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