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________________ उनका विवेचन द्रव्य गुणों के विशाल ग्रन्थों में भी उपलब्ध नहीं है । किंतु उस क्षेत्र के आदिवासी लोग जिन्हें देहाती व जंगली भी कह दिया जाता है तत्तत् क्षेत्रीय भिन्न-भिन्न नामों से जानते हैं और उपयोग करते हैं । इस प्रकार वनस्पतियां असंख्य हैं । अपार भण्डार है और यह वनसम्पदा सुरक्षा और ज्ञान के अभाव में विनाश के कगार पर है । एक बार देश में प्लेग महामारी के रूप में आई तब लाखों मानवों की मृत्यु हुई थी । उस समय आयुर्वेद, यूनानी व एलोपेथी आदि सभी प्रचलित चिकित्सा प्रणालियां असफल हो रही थीं । उस समय एक जैन साधु ने अश्वगंधा जड़ को गांठ पर लगाने का अनुभव बताया और उस समय यह औषधि रामवाण सिद्ध हुई थी । 'जंगलनी जड़ी-बूंटी' ग्रन्थ के लेखक ने उग्ररक्तपित्त के लिए एक संथाल से प्राप्त वरखो नाम की वनस्पजि से रक्त बन्द करने का अद्भुत प्रयोग बताया था । इसी प्रकार मेरे अनुभव में भी लगभग ४० वर्ष पहले एक गरीब रोगी के घाव में कीड़े पड़ गये थे । जब वह मेरे पास आया तो मैं किंकर्तव्यविमूढ हो रहा था कि पास में बैठे एक ग्रामीण ने अरणी (अग्निमंथ) की लुगदी बांधने का परामर्श दिया और आश्चर्य हुआ कि उस घाव के अधिकांश कीड़े एक ही पट्टे से बाहर आ गए । हमारे ऋषि मुनियों को प्रभावशाली वनस्पतियों का सूक्ष्मतम पूर्ण ज्ञान था । किंतु समय के भीषण आघातों से, समय परिवर्तन से हम इनकी पहिचान तक भूल गए । जैन वाङमय में विशेषतः जैनागमों में वनस्पतियों का बहुत विस्तार से वर्णन आता है | राजस्थान के सुप्रसिद्ध जिले नागौर के कस्बे लाडनूं में जैन विश्व भारती नाम का एक विशाल संस्थान है। जहां गणाधिपति महासंत तुलसी, आचार्य महाप्रज्ञ जैसे उच्च कोटि के जैन संतों द्वारा अहर्निश जैन वाङ्मय में अनुसंधान का कार्यक्रम चल रहा है। उन्हीं के एक विद्वान् शिष्य मुनिश्री श्रीचंदजी ने जैन आगम वनस्पति कोश का निर्माण किया है । इन्होंने द्रव्य गुण सम्बन्धी -भाव प्रकाश निघंटु, शालिग्राम निघण्टु, कैयदेव निघण्टु, राज निघण्टु सोढल व मदन पाल निघण्टु आदि ग्रन्थों का मनन व निदिध्यासन कर इस शोधपूर्ण ग्रन्थ का प्रकाशन किया है । इनका यह बहुमूल्य कार्य स्तुत्य व सराहनीय है । लेखक के अथक परिश्रम ने जनोपयोगी सुन्दर कार्य किया है । प्राकृत भाषा के नामों को आयुर्वेदीय नामावली से संतुलित कर वानस्पतिक क्षेत्र में अद्भुत योगदान दिया है । जो जैनागम के शोधकर्ताओं के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में उल्लेखनीय है । लेखक ने जिस उत्साह और लगन से वनस्पतियों के पर्यायवाची नामों की तथा चित्रों की खोज की है वह अत्यन्त श्लाघनीय है। उपयोगिता की दृष्टि से भी इस ग्रन्थ की सफलता असंदिग्ध है । प्रकाशन भी अतिसुन्दर व आकर्षक हुआ है । अतएव ग्रन्थ संग्रहणीय हो गया है । प्रस्तुत प्रकाशन में अभी करीब ४५० वनस्पतियों पर प्रकाश डाला गया है जो अभी अपूर्ण है । बहुसंख्यक वनस्पतियां अवशिष्ट हैं। विद्वान् लेखक और वनसंपदा को ११८ तुलसी प्रशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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