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________________ जैन आगमों में वनस्पति वर्णन .वैद्य सोहनलाल दाधीच निघण्टुना विना वैद्यो विद्वान् व्याकरणं विना, अनभ्यासेन धानुष्क स्त्रयो हासस्य कारणम् । अर्थात् द्रव्य गुण ज्ञान के बिना वैद्य, व्याकरण ज्ञान के बिना विद्वान् और बिना अभ्यास के धनुष चालक ये तीनों समाज में परिहास के कारण बनते हैं। अतीत में मानव-जीवन के साथ-साथ औषधि-विज्ञान व वनस्पति-विज्ञान का सांगोपांग विकास हुआ था। उस समय हमारे देश में चिकित्सा प्रणाली के रूप में एक मात्र आयुर्वेद का ही प्रवर्तन था । आयुर्वेद विज्ञान के आदि प्रवर्तक सष्टि के रचयिता ब्रह्मा, उनसे दक्ष प्रजापति और उनसे अश्विनीकुमार और उसके बाद इन्द्र को यह ज्ञान प्राप्त हुआ था। ये सब चिकित्सा विज्ञान में सिद्ध हस्त चिकित्सक हुए हैं। इसी परम्परा में काय चिकित्सा के प्रवर्तक आत्रेय और शल्य चिकित्सा के आचार्य धन्वतरि थे । काय चिकित्सा का प्रधान ग्रंथ चरक और शल्य चिकित्सा का सुश्रुत ये दोनों संहिताएं आयुर्वेद की बहुमूल्य धरोहर हैं । चरक में काय चिकित्सा और सुश्रुत में शल्य चिकित्सा का विवेचन है। ___ काय चिकित्सा प्रधान चरक ने वनस्पतियों के ४५ विभाग बनाकर क्वाथ चूर्ण वटी अर्क अवलेह घृत तैल रसायन आदि का अनेक रूपों में वैज्ञानिक विधि से भैषज्य निर्माण किया था । शल्य (सर्जरी) प्रधान सुश्रुत में लगभग ७०० वनस्पतियों का निरूपण किया गया है। भारत में उत्पन्न होने वाली ये वनस्पतियां हम भारतीयों के लिए- यस्यदेशस्य यो जन्तुस्तज्जं तस्यौषधं हितम्-सर्वथा अनुकूल व लाभप्रद होती अन्यान्य ज्ञान विज्ञानों की तरह वनस्पति-विज्ञान भी अन्वेषण अभाव में शिथिल होता चला गया। अब तो स्थिति यहां तक आ गई है कि वनस्पतियों की पहिचान भी चिकित्सकों को बहुत कम रह गई है । एक आयुर्वेद ग्रंथकार ने तो यह भी लिख दिया है कि -अस्माकं मूर्ख वैद्यानां पंसारी द्रोणपर्वतः । आज तो यह स्थिति है कि वैच चिकित्सा ग्रंथों के आधार पर नुस्खा लिखकर देता है और पंसारी (दवा विक्रेता) उन घटक द्रव्यों के अभाव में कोई अन्य द्रव्य मिलाकर देता है तो भी वैद्य उसे अंगीकार कर लेता है। परिणामतः प्रयोगों का प्रभाव विपरीत पड़ता है जो विज्ञान की प्रमति में बाधक बन रहा है । विभिन्न प्रदेशों में अनेकों वनस्पतियां इतनी चमत्कारिक व प्रभावपूर्ण है कि खण्ड २३, अंक १ ११७ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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