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________________ उजागर करेंगे इसी आशा और विश्वास के साथ सुरुचिपूर्ण प्रकाशन के लिए पुनः पुनः वर्धापन । समीक्षा लगभग छह दशक पूर्व स्व. धर्मानन्द कोसम्बी ने "पुरातत्व" नामक त्रैमासिक पत्रिका में एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने बुद्धकाल में सभी प्रकार के श्रमणों में मांसाहार के प्रचलन की बात कही थी। उसके बाद मराठी में लिखे गये उनके ग्रंथ - "भगवान बुद्ध" के एक अध्याय में (उत्तरार्द्ध भाग में ११ वां अध्याय) मांसाहार की बात को विशेष विस्तार से लिखा गया। "भवितव्य" नागपुर एवं “जन्मभूमि" (गुजराती दैनिक) आदि समाचार पत्रों में इस पर टीका-टिप्पणी हुई और जैन जगत् में काफी तनाव रहा । सन् १९४१ से १९४५ तक कलकत्ता से लेकर काठियावाड़ (सौराष्ट्र) तक अनेकों सभाएं हुई और श्री कोसम्बी के विरुद्ध निंदा-प्रस्ताव पारित किए गए । यवतमाल (विदर्भ) में तो इस आरोप से निपटने के लिए एक संस्था की स्थापना भी की गई। __ सन् १९५७ में श्री कोसम्बी की पुस्तक पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म-हिन्दी में प्रकाशित हुई तो काका कालेलकर ने भी इस संबंध में 'सच्चा समाज धर्म'.-शीर्षक से एक लघु लेख लिखा और कहा कि मांसाहार का उल्लेख जैन धार्मिक साहित्य में निर्विवाद रूप में पाया जाता है । उन्होंने पण्डित सुखलालजी के संदर्भ से यह भी लिखा दिया कि "महावीर स्वामी का अहिंसा-धर्म प्रचारक धर्म था, इसलिए उसमें समय-समय पर विभिन्न जातियों का समावेश हुआ है । जिस प्रकार अनेक सनातनी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य महावीर स्वामी का उपदेश सुनकर जैन हुए, उसी प्रकार कई क्रूर, वन्य और पिछड़ी हुई जमातों के लोग भी उपरत होकर जैन धर्म में प्रविष्ट हुए थे । ऐसे लोग जैन धर्म को स्वीकर कर चुकने के बाद भी एक अरसे तक मांसाहार करते रहे हों, तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । अतः यह साबित होने से कि पुराने समय में कुछ जैन लोग मांसाहार करते थे, यह अनुमान लगाना गलत होगा कि सभी जैनों के लिए मांसाहार विहित था ।" वस्तुतः जैनागम में पशु, पक्षी और जलचर जीवों के सदृश दिख पड़ने वाली वनस्पतियों के लिए तादश नामकरण हुए हैं और कहीं-कही उनके साथ "मांस" शब्द का प्रयोग हुआ है । सूर्य प्रज्ञप्ति (१०, १२०) में कृत्तिका से भरणी तक २८ नक्षत्रों के भोजन का विधान है जिसमें अनेक शब्द मांस परक हैं जैसे रोहिणी नक्षत्र के लिए वृषभ मांस, मृग शिरा के लिये मृगमांस, अश्लेषा के लिए दीपिक मांस, पूर्व फाल्गुनी के लिए मेष मांस, उत्तर फाल्गुनी के लिए नखी मांस, उत्तरा भाद्रपदा के लिए वराहमांस, रेवती के लिए जलचर मांस और अश्विनी नक्षत्र के लिए तितिरि मांस भोजन बताया गया है। भगवती सूत्र में उल्लेख है कि गोशाल के द्वारा तेजोलब्धि का प्रयोग करने से भगवान महावीर के शरीर के दाह लग गई, तो उन्होंने अपने शिष्य सिंह नामक अणगार को कहा-तुम मेंडियग्राम में रेवती गाथापति के घर जाओ। उसने मेरे लिये दो खण्ड २३, बंक १ ११९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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