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________________ पोठ" अथवा जाड्यकुम्भ एवं कणिका युक्त “कर्णपीठ' का ही निर्माण किया गया है। इस विषय में 'प्रासाद मण्डन' नामक ग्रंथ में रोचक तथ्य उपलब्ध होता है । जिसके अनुसार विभिन्न अलंकरणों एवं धरों से युक्त महापीठ बनवाने में द्रव्य का अधिक खर्च होता है, अत: अल्पद्रव्य से बनवाया गया अलंकरण विहीन कामद अथवा कर्णपीठ भी उतना ही पुण्य फल प्रदान करने वाला है। जंघा भाग में उत्तरी दिशा में गर्भगृह का प्रवेश द्वार है शेष पूर्व, दक्षिण एवं पश्चिमी दिशा में भद्राओं पर उभरे हुए गवाक्षों का निर्माण किया गया है जो गान्धार शैली के देवालयों का एक अभिन्न अंग है। उल्लेख्य है कि खुजराहों के पार्श्वनाथ मन्दिर में भद्राओं पर जाली निर्मित है परन्तु अन्य शैव एवं वैष्णव मन्दिरों में इसी प्रकार के गवाक्षों का अत्यन्त विकसित स्वरूप उपलब्ध होता है। विवेचित मन्दिर के जंघा पर निर्मित अन्तराल भागों में (भद्र, प्रति एवं कर्णरथों के मध्यवर्ती भाग) "राजसेनक" प्रदर्शित है । कर्णरथों पर द्विभुज दिक्पति प्रतिमाएं उटैंकित हैं इनमें इन्द्र, अग्नि, यम एवं निऋति उपलब्ध है। यह सभी देव प्रतिमाएं अत्यन्त रोचकता पूर्वक उद्गम से अलंकृत चैत्याकार रथिकाओं में स्थापित हैं।। जंघा के ऊपरी भाग में अर्धपद्मों से ग्रंथित पद्मपट्टिका उत्कीर्ण है। ओसिया के अनेक ब्रह्मण धर्म के मन्दिरों में भी यह अलंकरण मिलता है । ऊर्ध्व भाग में वरन्डिका निर्मित है जिसके दुहरे कणिकाओं पर ताल पत्रों से युक्त गहरे कण्ठ बनाए गए ऊर्ध्वच्छन्द में गर्भगृह का सर्वोच्च अंग शिखर है । वर्तमान समय में यह शिखर "मारूगुर्जर" शैली के शिखर का सुन्दरतम उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है । वस्तुतः कर्ण शृंगों एवं उरू शृंगों का पूंजीभूति स्वरूप (मुख्य शिखर) प्रतीत होता है। इसकी भद्राओं पर रथिकाओं के स्थान पर गवाक्षों का निर्माण हुआ है । पश्चिम भारत के मन्दिर वास्तु में यह तत्त्व पर्याप्त परवर्ती युग में समाविष्ट हुआ होगा । २. गढ़ मण्डप :-वर्गाकार स्वरूप वाली इस संरचना का विस्तार (चौड़ाई) १०.६५ मीटर है । भद्र एवं कर्ण रथिकाओं से युक्त यह गूढमण्डप भूमि योजनाओं में द्वि अंग वाली है। ऊर्वच्छन्द में इसके वरन्डिका तथा मूल प्रासाद वाले मोल्डिग का विस्तार हुआ है जो एक माला के रूप में संपूर्ण देवालय को आवेष्टित किए है ! सम्मुखवर्ती कर्ण कुम्भों पर अलंकृत रथिकाओं में यक्षयक्षी युगल प्रदर्शित है। तथा पश्चिमी दिशा में कुबेर स्थापित है। जंघा भाग के सम्मुख कर्ण रथों पर उत्तरपूर्वी कोण पर पूर्वी दिशा में जैन यक्ष "ब्रह्म शान्ति' सात फरो के घटाटोप से अलंकृत स्थापित हैं । उत्तर दिशा में (उत्तरमुख) जैन देवी पद्मावती इसी प्रकार उत्तर पश्चिमी कर्ण पर उत्तर मुख रथिका में जैन देवी आच्युप्ता की समभंग चतुभुर्ज प्रतिमा प्रदर्शित है । इसी कोण पर पश्चिम मुख वाली रथिका में चर्तुभुजी चक्रेश्वरी देवी की अत्यन्त कमनीय मूर्ति उटैंकित है । जंघा भाग के ही समान गूढ मण्डल का शिखर भी मूर्ति कला एवं वास्तु कला का अद्भुत समन्वय प्रस्तुत कर रहा है । यह त्रिभूमिक फांसना शैली का शिखर है सर २३, बंक १ १०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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