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________________ जिसमें तीन मंजिल वाली पिरामिड शैली की रूप पट्टिकाओं में प्रदशित नृत्यरत विद्याधरो एवं गंधों की नत्यरत वाद्ययन्त्रों को बजाती मूर्तियां शिखर की शोभा वृद्धि कर रहीं हैं । शिखर के चतुर्दिग शृंग निर्मित है। भद्रों के गवाक्षों के ऊपरी भाग में परिक्रमा युक्त रथिकाओं का निर्माण हुआ है। जिसमें उत्तरी दिशा में आसन मुद्रा में सर्वानुभूति तथा पूर्व पश्चिम में अन्य जिन देवता स्थापित हैं । इस शिखर के चतुष्कोणों पर अत्यन्त अलंकृत कर्णकूर प्रदशित है । त्रिखण्डी शिर के तृतीय खंड में प्रत्येक पार्श्व में मात्र एक-एक सिंहकर्ण उत्कीर्ण है । जिसके मध्य में एक-एक जिन देवता की आसीन प्रतिमाएं स्थापित हैं । तत्पश्चात सादा अन्र्तपत्र तथा स्कन्ध देवी निर्मित है । एक लघु ग्रीवा विशाल घण्टा तथा कलश शिखर के सर्वोच्च भाग में प्रदर्शित है। परन्तु यह सभी मूल संरचनाएं नहीं हैं । ३. मुखमण्डप :--मुखमण्डप का वर्तमान युग में प्राचीन खण्डों द्वारा ही पुननिर्माण हुआ है परन्तु इसके मौलिक स्वरूप में इस कारण पर्याप्त अन्तर आया है यहां तक कि मूल मुख चतुष्की भी इसी अंग में समाविष्ट हो गयी है । मन्दिर के इस अंग में चतुः पंक्तियों में छः अलंकृत स्थल स्थापित है । इस प्रकार इनकी पूर्ण संख्या चर्तुविशति हुई जिनका जन सम्प्रदाय से महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध है इसके ऊपर मूलमण्डप के समान ही फांसना शैली का शिखर स्थापित है। मुखमण्डप का शिखर द्विखण्ड युक्त है, फांसना शैली का है। इसके खुले हुए उत्तरी कोण पर प्रासादिका (लघु मन्दिर) का अंकन है। मूल मण्डप के समान यहां भी सिंह कर्ण निर्मित है । पूर्वी दिशा में तीन अलंकृतरथिका में एक रूप पट्टिका के रूप में जैन यक्षी एवं विद्याधरी प्रदर्शित हैं, मध्य में मानसी एवं पार्श्व में वालादेवी तथा "पुरुषदत्ता' अंकित है। उत्तरी दिशा की इन रथिकाओं में मध्य में वंशेट्या तथा पार्श्व में गौरी एवं मानसी स्थापित है। इसी प्रकार पश्चिमी सिंहकर्ण की रूपपट्टिका में महाकाली मध्य में एवं पार्श्ववर्ती रथिकाओं में चक्रेश्वरी तथा वाग्देवी उपस्थित मुख चतुष्की :--यह लध्वाकार संरचना है जो अनेक शताब्दियों में पुर्ननिर्माण किये जाने के कारण अब प्राय: मुख मण्डप का ही अंग प्रतीत होता है । इसका शिखर भी द्विखण्ड वाला फांसना शैली का है। इसके सर्वोच्च भाग पर घण्टा स्थापित है तथा कोणों पर "नागर कूट" प्रदर्शित है । इसके तीन दिशाओं में तीन-तीन रथिकाओं में देवाकृतियां स्थापित हैं। पूर्वी दिशा की पेडिमेन्ट में महाविद्यावाली, महामानसी एवं वरूण यक्ष अंकित है । उत्तरी दिशा में यक्ष सर्वानुमूर्ति, ऋषभनाथ तथा यक्षी में अम्बिका प्रदर्शित है । अवशिष्ट पश्चिमी दिशा में पेडिमेन्ट में मध्य में रोहिणी (जैन देवी) तथा पार्श्व में वज्र शृंखला उटैंकित है । कपिली अथवा अन्तराल :- गर्भगृह एवं मूल मण्डप को जोड़ने वाली यह वास्तु संरचना पर्याप्त महत्त्वपूर्ण है । इसके भी ऊर्ध्वच्छन्द में गर्भगृह वाली मोल्डिंग का विस्तार उपलब्ध होता है । इसके पूर्वी एवं पश्चिमी दिशाओं में कुम्भ निर्मित हैं । पूर्वी दिशा पर सूर्य देवता की भव्य मूर्ति स्थापित है। पश्चिमी दिशा की देव प्रतिमा तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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