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________________ महावोर मन्दिर ओसिया ग्राम के पश्चिमी सीमा पर स्थित इस जिनालय में वास्तु एवं शिल्प का अद्भुत समन्वय दृष्टिगत है । नागर शैली के शैशवावस्था में निर्मित इस क्षेत्र के सभी मन्दिरों के समान ही इस महावीर मन्दिर का वास्तु विन्यास भी अनुपम है। सात देवकुलिकाओं से आवेष्टित इस मन्दिर के वास्तु का तलच्छन्द एवं ऊर्ध्वच्छन्द में सम्यक् विकास परिलक्षित होता है । ऊर्ध्वच्छन्द में मन्दिर के प्रमुख अंग-जगती, अधिष्ठान, मण्डोवर एवं शिखर है । सम्पूर्ण देवालय एक विस्तृत परन्तु अन्य वैष्णव मन्दिरों की तुलना में कम ऊंची (लगभग ४-५ फीट) जगती पर स्थापित है । इसके मध्य में उत्तराभिमुख मुख्य देवालय निर्मित है जिसके दक्षिण पार्श्व में (पूर्व दिशा में) तीन एवं वाम पार्श्व में (पश्चिमी दिशा में) चार लघुमन्दिर हैं जिन्हें जैन वास्तु में देवकुलिका की संज्ञा से अभिहित किया गया है । तलच्छन्द में मन्दिर के अंगों का विकास इसी स्थल पर उपलल्ध वैष्णव मन्दिर के तलच्छद के समान है परन्तु कतिपय विशिष्ट अंगों का कलेवर कालान्तर में जुड़ता गया। १. मूल प्रसाद (गर्भ गृह)--वर्गाकार मूल प्रसाद अथवा गर्भगृह की एक भुजा की लम्बाई ७.७७ मीटर है। चौबीसवें तीर्थकर महावीर स्वामी की अनुपम प्रतिमा से युक्त यह गर्भगृह गान्धार शैली का सुन्दर उदाहरण है। पंचरथ योजना पर निर्मित इस देवालय के जंघा भाग में भद्ररथ, प्रतिरथ एवं कर्णरथ स्थापित किए गए हैं । भद्ररथ वृहताकार है जो कर्ण रथों के दो गुने हैं परन्तु प्रतिरथ लघु आकार में निर्मित हैं । ऊर्ध्वच्छन्द में गर्भगृह के पांच प्रमुख अंग हैं- वैदीवन्ध या अधिष्ठान जंघा द्विस्तरीय वरण्डिका एवं शिखर-वैदीबन्ध पीठ अथवा गर्भगृह के अधिष्ठान में छः गहरी मोल्डिंग प्रदर्शित है । इसमें अधः भाग से क्रमशः भिट्ट, चौड़ा अन्तरपत्र (खन्धर) एवं कपोत (कणिका) निमित्त है । कपोत अथवा कणिका पर चैत्याकार "चन्दशालाएं" एवं अर्ध पद्म का अलंकरण अत्यन्त शोभनीय प्रतीत होता है। पुनः अपेक्षया कम चौड़ी एवं अलंकरण रहित अन्तर्पत्र एवं तत्पश्चात् "बसन्तपट्टिका" का अंकन किया गया है । वेदी वन्ध की पांच मोल्डिंग यद्यपि स्थल पर उपलब्ध अन्य मन्दिरों के समान ही क्षुरक, कुम्भ, कलश, अन्तर्पत्र एवं कपोत पांच अलंकरणों से अलंकृत है तथापि इस मन्दिर में कतिपय विशिष्टताएं परिलक्षित होती हैं यथा कुम्भ में रथिका स्थित द्विभुज कुबेर, गजलक्ष्मी, वायु तथा मिथुन युग्म कर्णों पर स्थापित है, इसी प्रकार कपोत कलिकाओं द्वारा सुसज्जित किए गए हैं । उल्लेख्य है कि स्थल के प्रायः सभी मंदिर ऊंची जगती पर स्थित हैं जिसमें प्रवेश द्वार की ओर से सोपान शृंखला निर्मित है। तत्पश्चात् प्रासाद का अधिष्ठान भाग प्रारम्भ होता है । शिल्प शास्त्रों में ' इसे “महापीठ' की संज्ञा दी गई है तथा इसके विभिन्न उपांगों जाड्यकुम्भ, कणिका, अन्तर्पत्र, कपोताली, गजधर, अश्वधर, नरधर आदि का उल्लेख है । परन्तु ओसिया के अधिकांश मन्दिरों के पीठ (अधिष्ठान) "धर" रहित है। यहां मात्र जाड्यकुम्भ, कणिका, केवाल एवं ग्रास पट्टी से युक्त “कामद १०२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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