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टीला जैन धर्म और कला का प्रमुख केन्द्र था।" इस स्थल के उत्खनन से जैन स्तूपों के अवशेष, अनेक अभिलेख तथा अत्यधिक मात्रा में शिल्प सामग्री प्राप्त हुई है। इसके आधार पर यह अनुमान किया जाता है कि कंकाली टीले पर लगभग दूसरी शताब्दी ई. स. पूर्व से लेकर कम से कम ग्याहरवीं शताब्दी तक जैन स्तूप तथा मंदिर आदि विद्यमान थे। यहां से प्राप्त मूर्तियों और लेखों से यह भी पता चलता है कि मथुरा में वस्तुतः जैनों के दो स्तूप थे--- एक शृंगकाल का तथा दूसरा कुषाणकाल का।" शृंगकालीन स्तूप का विवरण स्मिथ ने प्रस्तुत किया है, जिसका व्यास ४० फुट ६ इंच था । यह स्तूप ईंटों से निर्मित था तथा इसकी आधार शिला तक्षशिला के धर्म-राजिका स्तूप के समान केन्द्र से बाहर की ओर जाती हुई आरेनुमा दीवारों पर स्थित थी। ऐसी ही आधारशिला की रचना कनिष्क द्वारा निर्मित पेशावर के स्तूप में भी पाई गई है। शुंगकाल में निर्मित मथुरा का यह जैन स्तूप कुषाणकाल में भी विद्यमान था । बहुत संभव है इसका मूल स्वरूप इससे भी अधिक प्राचीन रहा हो, जैसा कि विविध तीर्थकल्प से संकेत मिलता है। यहां से प्राप्त मुनि सुव्रत की एक प्रतिमा पर अंकित लेख में स्तूप को "देवनिर्मित" कहा गया है जो इसकी प्राचीनता की ओर संकेत करता
__ कंकाली टीले से जो आयागपट्ट तथा अन्य शिलाखण्ड प्राप्त हुए हैं। उनमें से कुछ पर छोटे आकार के स्तूप उत्कीर्ण है ।" इन्हें देखकर जैन स्तूपों के आकार-प्रकार का अनुमान लगाया जा सकता है । एक शिलापट्ट पर अंकित स्तूप अर्धचन्द्राकार है, जिसे नीचे से ऊपर की ओर घटता हुआ बनाया गया है। इस पर एक भू-वेदिका तथा दो मध्य वेदिकाएं प्रदशित हैं । सबसे ऊपर हमिका है, जो छोटी वेदिका एवं छत्रों से युक्त है। किन्नर और यक्ष सुपर्ण स्तूप की पूजा करते हुए दिखलाए गये हैं। संभवतः मथुरा का प्राचीनतम देव निर्मित स्तूप इसी प्रकार का रहा होगा। इसकी तिथि डा० अग्रवाल ने द्वितीय शताब्दी ईसापूर्व के आरम्भ में निर्धारित की है।" शुंगकालीन स्तूप के तोरण पर दो अभिलेख भी मिले हैं। इनमें पशुशीर्ष युक्त दो स्तम्भों के आयागपट्ट पर एक ओर किन्नर सुवर्णो द्वारा पूजा करता हुआ अंकित है । तथा दूसरी ओर श्रावक परिवार हाथी, घोड़ों के रथों में सवार होकर स्तूप-पूजा के लिए जाते हुए दिखलाये गये है । एक तोरण के दोनों ओर दो शालभंजिकाएं भी अंकित हैं।"
मथुरा के एक अन्य आयागपट्ट पर एक जैन स्तूप का चित्र उत्कीर्ण है, जिसका अण्ड भाग लम्बोतरा है। इस स्तूप में प्रथम मेधि तक जाने के लिए एक सोपान बना है । इसके अतिरिक्त भू-वेदिका और तोरण-द्वार भी प्रदशित हैं । द्वार में तीन भारपट्ट और शालभंजिकाएं दर्शनीय हैं । चित्र में स्तूप का प्रदक्षिणापथ तथा दोहरी वेदिकाओं से युक्त लम्बोतरा अण्ड भी दिखलाया गया है । शैलीगत विशेषताओं के आधार पर डा० अग्रवाल ने इसे कुषाणकालीन माना है।"
___ उपयुक्त विवरण से स्पष्ट है कि जैन स्तूपों की रचना भी लगभग वैसी ही की जाती थी जैसी बौद्ध स्तूपों की। इनका 'अण्ड' भाग उल्टे कटोरे या बड़े बुलबुले के समान अर्धचन्द्राकार लम्बोतरा होता था, जिसे गोल चबूतरे या मेधि पर बनाया जाता
तुलसी प्रशा
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