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________________ स्तूप के पुरावशेष आज उपलब्ध नहीं हैं । इसका एक कारण यह हो सकता है कि जैन भगवान बुद्ध के बात नहीं कही । निर्मित किये गये । धर्म में स्तूपों को वह महत्व प्राप्त नहीं था जो बौद्ध धर्म में था । समान किसी तीर्थंकर ने अपने धातु अवशेषों पर स्तूप बनवाने की अधिकतर स्थानों पर स्तूप तीर्थंकरों के आगमन की स्मृति में ही उनका तीर्थंकरों के परिनिर्वाण से कोई सम्बन्ध नहीं था । यह हो सकता है कि कुछ तीर्थकरों या जैन मुनियों की स्मृति में समाधियां या स्तूप बनाये गये हों और उन्हें पवित्र भी माना जाता रहा हो। उनमें से कुछ बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण भी रहे होंगे, परन्तु वे जैन मुनियों के लिए अपरिहार्य नहीं थे । जैन धर्म में बौद्धों की भांति तीर्थंकरों की मूर्तियों के निर्माण और पूजा-अर्चना की मनाही नहीं थी । महावीर स्वामी की मूर्ति उनके जीवन काल में ही निर्मित की गयी थी, जो 'जीवंत स्वामी' नाम से जानी जाती थी । " खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख में नन्दों के समय में जिन प्रतिमा के होने का उल्लेख मिलता है ।" लोहानीपुर (पटना) की मूर्ति को कुछ विद्वानों ने जैन तीर्थंकर की प्राचीनतम प्रतिमा माना है ।" इस प्रकार जैन अपनी आस्था और भक्ति की तुष्टि तीर्थंकर मूर्तियों और आयागपट्टों पर अंकित मांगलिक चिह्नों की पूजा से कर सकते थे । कालांतर में उन्होंने हिन्दुओं की भांति मूर्तियों की स्थापना के लिए मंदिरों का निर्माण आरम्भ कर दिया । अतः उन्हें पूजा-उपासना के लिए स्तूपों की आवश्यकता नहीं रही । इसके अतिरिक्त कुछ विद्वानों का मानना है कि अशोक के प्रभाव और फिर कुषाण राजाओं की बौद्ध परस्त नीति के कारण समाज में बौद्धों का प्रभाव बहुत अधिक बढ़ गया था । परिणाम स्वरूप कुछ जैन स्तूपों पर बौद्धों का अधिकार संभावित हो सकता है । इसके संकेत जैन परम्परा में यत्र-तत्र मिलते हैं । पाटलिपुत्र में नन्दों द्वारा पांच जैन स्तूप बनवाने का उल्लेख मिलता है ।" ह्वेनसांग ने इन स्तूपों को भग्नावस्था में पाटलिपुत्र के पश्चिम में देखा था, परन्तु वह इन्हें बौद्ध स्तूप कहता है ।" कलिंग की खण्डगिरि गुफाएं और वहां के अन्य पुरावशेष जैन धर्म से सम्बन्धित हैं, परन्तु वहां के स्तूप बौद्ध माने जाते हैं, जबकि कतिपय विद्वानों के अनुसार इन्हें " जैन स्तूप" होना चाहिए ।" तक्षशिला के सिरकप टीले के उत्खनन से प्राप्त तथाकथित बौद्ध स्तूप की रचना मथुरा के जैन स्तूप के समान है । पर कुछ विद्वान इसे भी जैन स्तूप मानते हैं, जिसे कुषाणों द्वारा निर्मित किया गया होगा ।" यही हाल पेशावर के जैन स्तूप का भी हो सकता है जो कनिष्क के प्रणाम करते ही वस्त हो गया था । मथुरा के देवनिर्मित स्तूप को लेकर भी बौद्धों और जैनों के बीच हुए झगड़े का उल्लेख जैन साहित्य में मिलता है, जिसके परिणाम स्वरूप बौद्धों ने छः महीने तक " जैन स्तूप" पर अधिकार बनाये रखा परन्तु राजा द्वारा जैनों के पक्ष में निर्णय दिये जाने के कारण अन्ततः उनकी विजय हुई और मथुरा का देवनिर्मित जैन स्तूप बच गया ।" ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय मथुरा के जैन मुनियों का माथुर संघ बहुत अधिक शक्तिशाली एवं प्रभावी था । अतः वह स्तूप की रक्षा करने में सफल रहा । इस आधार साहित्यिक और पुरातात्विक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि मथुरा का कंकाली खण्ड २३, अंक १ ९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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