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________________ नगर के मणिपर्वत पर एक ऊंचे स्तूप का निर्माण करवाया था। एक अन्य अनुश्रुति से पता चलता है कि जैन तीर्थकर महावीर हस्तिनापुर में पधारे थे। उसी समय वहां के तत्कालीन राजा शिवराज अपने कुटुम्बियों और अनुचरों के साथ उनका शिष्य हो गया था और उनके पदार्पण की स्मृति में हस्तिनापुर में एक स्तूप का निर्माण करवाया था। तीत्थोगाली पइण्णय से इस बात का पता चलता है कि किसी समय पाटलिपुत्र भी जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र था और नन्द राजाओं ने वहां पर पांच जैन स्तूप बनवाये थे, जिन्हें कल्कि नामक किसी दुष्ट राजा ने धन के लालच में खुदवा डाला था।' कनिष्क के समय में पेशावर में भी एक जन-स्तूप होने का विवरण मिलता है। धार्मिक होने के कारण कनिष्क ने स्तूप को एक बार प्रणाम किया, परन्तु उसके प्रणाम करते ही यह स्तूप भग्न हो गया क्योंकि उस राजा को प्रणाम करने का उच्च अधिकार ही प्राप्त नहीं था। एक अन्य जैन अनुश्रुति के अनुसार तक्षशिला भी जन सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र था और संभवत: यहां भी जैन स्तूप का अस्तित्व विद्यमान रहा होगा। भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् पावापुरी में भी देवों द्वारा निर्मित एक स्तूप के निर्माण का उल्लेख जैन शास्त्रों में मिलता है। राजावली कथा में उल्लेख आया है कि आचार्य भद्रबाहु के गुरु गोवर्धन महामुनि कोटिकापुर में जम्बुस्वामी के स्तूप का दर्शन करने के लिए अपने शिष्य-समुदाय के साथ गये थे । अन्तिम केवली जम्बूस्वामी का निर्माण ४६५ ई०पू० में माना जाता है । अतः इसी समय कोटिकापुर में जम्बूस्वामी के स्तूप का निर्माण हुआ होगा। जैन ग्रंथ व्यवहारसूत्र-भाष्य तथा विविधतीर्थकल्प के अनुसार मथुरा में सातवें तीर्थकर सुपार्श्वनाथ का पदार्पण हुआ था। उस समय उनकी पूजा के लिए कुबेरा यक्षी तथा यक्ष आदि देवों ने रातों-रात स्वर्ण के एक विशाल रत्न-जटित स्तूप की रचना की थी। यह स्तूप देवमूर्तियों, ध्वज, तोरण, मालाओं तथा तीन छत्रों से अलंकृत था । उसमें तीन मेखलाएं थीं। प्रत्येक मेखला के चारों ओर देवमूर्तियां थीं। कालान्तर में तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ (८७७-७७७ ई.पू.) के समय में इस देवनिर्मित स्तूप को ईटों से आच्छादित किया गया ।" व्यवहारसूत्र-भाष्य के अनुसार बौद्ध लोग इस जैन स्तूप को अपना बताकर उस पर अधिकार करना चाहते थे, परन्तु तत्कालीन राजा ने जैन संघ के पक्ष में निर्णय दिया ।" तीर्थकल्प से यह भी पता चलता है कि भगवान महावीर के लगभग १३०० वर्ष बाद मथुरा के इस स्तूप का जीर्णोद्वार बप्पट्टिसूरि (८ वीं शताब्दी ई.) ने करवाया था। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार अन्तिम केवली जम्बूस्वामी का निर्वाण (४६५ ई. पू.) मथुरा में ही हुआ था। उन्होंने यहीं तपस्या की थी तथा अन्जन चोर नामक दस्युराज और उसके ५०० साथियों को अपना शिष्य बनाकर जैन धर्म में दीक्षित किया था। ये सभी जैन मुनि तपस्या करते हुए मथुरा में ही सद्गति को प्राप्त हुए और उनकी स्मृति में यहां ५०० या ५०१ स्तूप निर्मित किये गये थे। इन स्तूपों को १६ वीं शताब्दी ई. तक विद्यमान रहने तथा इनके जीर्णोद्धार कराये जाने के संकेत जैन साहित्य में मिलते हैं।" उपर्युक्त जैन स्तूपों में से मथुरा में "देवनिर्मित" स्तूप के अतिरिक्त अन्य किसी तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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