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था। अण्ड के शीर्ष पर हमिका और छत्रावली होती थी। मेधि की चारों दिशाओं में तीथंकरों की मूर्तियां स्थापित की जाती थीं। स्तूप को वेदिका से घेरकर उसके साथ सभी दिशाओं में तोरणद्वार बनाये जाते थे। इनमें प्रायः चार वेदिकाओं के उदाहरण मिलते हैं । मध्य वेदिका तक जाने के लिए सोपान होता था । वेदिका का निर्माण स्तम्भ, सूची और उष्णीष के योग से किया जाता था। साथ में पुष्पग्रहणी वेदिकाएं भी निर्मित की जाती थीं। स्तूप, वेदिका और तोरण के अलंकरण के लिए विभिन्न प्रकार की मूर्तियों, शालभंजिकाओं, उद्यान-क्रीड़ा और सलिल-क्रीड़ा में रत नव-युवतियां, यक्षयक्षियां, अप्सराएं, अनेक प्रकार के मांगलिक प्रतीकों से युक्त आयागपट्टों आदि का प्रयोग किया जाता था। जैन वेदिका स्तम्भों का अलंकरण बौद्ध स्तूपों की भांति ही किया है । वेदिका स्तम्भों पर जन-जीवन के दृश्य भी प्रदर्शित किये गये हैं। परंतु शुंगकालीन स्तूप की वेदिका के स्तम्भ अपेक्षाकृत कुछ ऊंचे थे और उन पर बहुसंख्यक खिले हुए पद्म बने हुए थे, जिसके कारण उसे “पद्मवर" वेदिका कहा जाता था।
संदर्भ :
१. जैन, ज्योति प्रसाद, उत्तर प्रदेश और जैन धर्म, पृ. ३२ २. वही, पृ. ४३ । ३. जोशी, नी.पु., जैन स्तूप और पुरातत्त्व, भगवान महावीर स्मृति-ग्रन्थ, आगरा,
१९४८-४९, पृ. १८३, तित्थोगाली पइण्ण्या-कल्कि प्रकरण । ४. वही, पृ. १८५ वा.से. G.K. Nariman, Literary History of Sanskrit
Buddhism, Bombay, 1923, p. 197.
डॉ. मोतीचन्द द्वारा उद्धृत, प्रेमी-अभिनन्दन-ग्रन्थ, पृ. २३८ । ५. डा. मोतीचन्द्र, प्रेमी-अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ. २४३ । ६. जोशी, ना. पु. भगवान महावीर स्मृति ग्रंथ, पृ. १८३ ।
पावापुरी तीर्थ का प्राचीन इतिहास, पृ. १ । ७. जोशी, नी. पु., वही, पृ. १८३ । ८. जैन, ज्योति प्रसाद, उत्तरप्रदेश और जैनधर्म, पृ ५३ । ९. व्यवहारसूत्र-भाष्य, ५, २७-२८, विविध कल्पसूत्र सं. जिनविजय, पृ. १७-१८,
जोशी, नी. पु., भगवान महावीर-स्मृति ग्रन्थ, पृ. १८५, १८६, जैन, ज्योति प्रसाद, उत्तर प्रदेश और जैनधर्म, पृ. ५३ ।
पब २३, अंक।
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