SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूर भी उसी समय मथुरा अभ्ये थे पर उनकी उम्र १२-१३ से अधिक नहीं थी अतः युद्ध में शामिल नहीं हुए । इस घटना के बाद शोकार्त सूर अन्धे होकर ब्रज में ही रहने लगे । फिर उन्होंने वह स्वप्न देखा जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी । स्वप्न में ही उन्हे आदेश मिला कि भावी गुरु के लिए प्रतीक्षा करो, दक्षिण के एक प्रतापी ब्राह्मण आध्यात्मिक पथ के बाधक षडरिपुओं का नाश करेंगे, तुम उन्हें समस्त बुद्धि विवेक विद्या का मानदण्ड मान उनकी शिक्षा को मानना । इस तरह का स्वत्न अस्वाभाविव नहीं था क्योंकि उस युग में बिना आचार्य प्रायः दक्षिण के ब्राह्मण होते थे । इस आदेश के बाद सूर के लिए भावी गुरु की प्रतीक्षा करना स्वाभाविक था । पद में कहीं भी ऐसा नहीं कहा गया है कि सूर ने संन्यास-दीक्षा ली थी या वल्लभाचार्य को छोड़ दूसरे किसी को कभी गुरु बनाया था अतः मिश्रबन्धुओं या डा. मुन्शीराम शर्मा की भांति जो वल्लभाचार्य से भेट के पूर्व उन्हे किसी दूसरे सम्प्रदाय में दीक्षित मानते हैं उन्होने इस पद के भाव को यथार्थ रूप में ग्रहण नहीं किया है । गौघाट पर रहते समय 'सूर' स्वामी कहलाते थे, इससे उनका किसी सम्प्रदाय में दीक्षित होना सिद्ध नहीं होता ब्राह्मणों तथा ब्रह्मचारियों के लिए 'स्वामी' शब्द का व्यवहार असम्भव नहीं फिर भक्त जन अन्धे सूर को अकेला नहीं छोड़ सकते थे, कुछ सदा पास रहकर सेवा करते । ऐसे भक्त 'सेवक' कहलाते यह भी कुछ अनहोनी बात नहीं । चमत्कारों पर विश्वास करने की आदत के कारण वंशावली वाले पद के विरुद्ध यह आपत्ति आज तक किसी ने नहीं उठाई कि इसमें कुएं से स्वयं भगवान् द्वारा निकाले जाने और दिव्यदृष्टि पाने का वर्णन है । वास्तव में यही एक उचित आपत्ति इस पद के विरुद्ध उठायी जा सकती है । यह आपत्ति और कुआ कहां था, कितना गहरा था, उसमें जल था या नहीं आदि सारे तर्क बेकार हो जाते हैं यदि हम समझ लें कि कूपपतन, उद्धार, दिव्यदृष्टि, भगवान् के दर्शन और सारी बातचीत स्वप्न की घटना है । दृष्टिकूट शैली के अनुसार 'भए अन्तदर्शन बीते पाछिली निसियाम' कहकर इसका संकेत सूर ने दे दिया है । यह मानना हास्यास्पद होगा कि सूर को कुएं से निकालने और उनसे दो-चार बातें करने में भगवान् ने सारी रात बिता दी । सही अर्थ यह है कि सूर ने स्वप्न रात के अन्तिम प्रहर देखा था और इसलिए उसका सत्य होना उन्हे संदेह से परे लगा था । उसी प्रकार यह तर्क भी असंगत है कि 'दिव्य-चख' पाने के बाद सूर ने भगवान् से मांगी तो "वह भक्ति जिसका स्वभाव ही शत्रुनाश करना है" पर कामना वै मुगलों के पराभव की कर रहे थे ! वल्लभ - सम्प्रदाय के विख्यात कवि नागरीदास ने 'पदप्रसंगमाला' में बताया है कि सूर जब वल्लभाचार्य से पहली बार मिले तब वल्लभाचार्य ने उन्हे 'लरिका' कहकर सम्बोधित किया था । सं० १५७४ में उनकी उम्र १२-१३ वर्ष की रही हो तो उनका जन्म सं० १५६१ के लगभग हुआ होगा । डा० मुन्शीराम शर्मा ने तर्कसंगत कारणों से उनके वज्लभ-सम्प्रदाय में दीक्षित होने का समय सं० १५८१ के लगभग माना है । उस समय वल्लभाचार्य की उम्र ४६ वर्ष और सूर की उम्र २० वर्ष के लगभग होने से खंड २२, अंक २ Jain Education International For Private & Personal Use Only १३३ www.jainelibrary.org
SR No.524588
Book TitleTulsi Prajna 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy