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________________ 'लरिका' सम्बोधन स्वाभाविक है । साहित्यलहरी की रचना के समय सूर की उम्र ४६ वर्ष की थी जब कि अन्य मतों से ६२ वर्ष या अधिक आती है । अलंकार और नायिका भेद विषयक ग्रन्थ की रचना के लिए स्वाभाविक उम्र ४६ है या ६२, इसका निर्णय पाठक स्वयं कर लेंगे। रचनाकाल 'मुनि पुनि रसन के रस लेख' पद में वैशाख मास, अक्षय तृतीया, रविवार, सुकर्म योग और कृत्तिका नक्षत्र निर्विवाद समझे जाते हैं किंतु संवत् के बारे में विवाद है। सं० १६०७, १६१७, १६२७ और १६७७ ये चार सं० सुझाये गये हैं । इनमें से मान्य वही होगा जो दृष्टिकूट शैली के अनुकूल हो और जिससे सारी बातों का मेल बैठ जाय। जो विद्वान् सं.१६७७ अर्थ लेते हैं उनके बारे में मुनि=७, पुनि पुनः, मुनि=७, रसन के रस-६, दसन गौरीनन्द को=१ होना चाहिए । सं. १६२७ माननेवाले 'मुनि' का अर्थ ६, 'रसन' का रसना और फिर उसके रो कार्यों (स्वाद-ग्रहण और भाषण) के आधार पर २, रस का ६ और 'दसन गौरीनन्द को का अर्थ १ लेते हैं। सं० १६१७ माननेवाले 'रसन' का अर्थ दो के बदले एक लेते हुए अन्य बातों में सं० १६२७ माननेवालों अनुसरण करते है । सरदार कवि ने अपनी टीका में कोई व्याख्या नहीं होने पर सं० १६०७ अर्थ ही माना था। भारतेन्दु, बा. राधाकृष्ण दास, मिश्र बन्धु और आचार्य रामचद्र शुक्ल ने भी सं० १६०७ माना। भारतेन्दु और राधाकृष्ण दास ने फिर भी 'रसन' का अर्थ 'एक' लिखा जिससे विवादों का पथ प्रशस्त हो गया। सुबल सं० क्या है और वह इनमें से किस वर्ष में पड़ता हैं यह जानकारी हमारी समस्या का हल कर सकती है । ज्योतिषोक्त संवत्सर साठ हैं जिनमें उक्त नाम का कोई नहीं है। स्पष्टतः दृष्टिकूट शैली द्वारा ज्योतिषोक्त साठ संवत्सरों में से किसी का निर्देश है और उक्त वर्षों में कब कौन पड़ता है, उसके लिए 'सुबल' शब्द उपयुक्त है या नहीं, यह विषय विचारणीय है । किस वर्ष कौन संवत्सर है ? इसे जानने का उपाय यह है-''शक वर्ष को दो स्थानों पर लिखो। एक स्थान पर २२ से गुणा कर ४२९१ जोड़ो, तथा उसमें १८७५ का भाग दो। जो लब्धि हो उसको दूसरे स्थान पर लिखे शक वर्षों में जोड़कर साठ का भाग देने से शेष जो बचे उसमें एक जोड़ देने से संवत्सरादि क्रम में सवत्सर होगा"।" इस पद्धति से सं० १६७७ में शुक्ल सं० १६२७ में बहुधान्य, सं १६१७ में विभव और सं० १६०७ में कालयुक्त आता है। इस प्रकार की गणना से डा० दीन दयालु गुप्त का सं० १६१७ में और डा० मुन्शीराम शर्मा का स. १६२७ में वष मानना संगत नहीं लगता। गणना से प्राप्त संवत्सरों में से कालयुक्त के लिए ही सुबल संगत प्रतीत होता है क्योंकि काल का बल प्रसिद्ध ही है : पुरुष बली नहिं होत है, समय होत बलवान । भीलन लूटी गोपिका, सोइ अर्जुन सोइ बान ॥ इससे साहित्यलहरी का रचनाकाल सं० १६०७ मानना ही उचित लगता है। १३४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524588
Book TitleTulsi Prajna 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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