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________________ इसका अर्थ यह है कि सरदार कवि के पहले ही 'साहित्यलहरी' के कम से कम दो तरह के हस्तलेख प्रचलित हो चुके थे जिनमें पदों में क्रम संख्या और पाठ में भिन्नता आ गयी थी । किसी ग्रन्थ की दो-तीन टीकाएं होना और उनमें पाठांतर आना लम्बा समय बीतने पर ही सम्भव है । इससे ग्रन्थ की प्राचीनता और प्रामाणिकता सिद्ध होती है । आज यदि हस्तलेख नहीं मिलते तो पूर्व काल में उनका होना असिद्ध नहीं होता । भारतेन्दु के बाद हस्तलेखों के सहसा लुप्त हो जाने के कारण कीड़े-मकोड़े भी हो सकते हैं और 'साहित्यलहरी' को अप्रामाणिक सिद्ध करने को कटिबद्ध ब्रह्मभटों से विद्वेष रखने वाले भी जिनकी संख्या हिन्दी संस्थाओं में कुछ कम नहीं है । वंशावली का पद वंश - परिचय का पद भी पाठभेदों के प्रसंग में विचारणीय है । मीतलजी द्वारा काम में लायी गयी चार मुद्रित प्रतियों में से चारों में ही यह प्राप्त है । वैसे मीमलजी ने पाठांतर अनेक दिये हैं किन्तु वे इसे सूर कृत नहीं मानते अतः परिशिष्ट में रखे गये इस पद का सम्पादन उन्होंने अच्छे ढंग से नहीं किया, पद की निम्न पंक्ति उन्होंने किसी पाठांतर के बिना ही दे दी है : सो समर करि साहि से, सब गए विधि के लोक । यह पाठ सरदार कवि की टीका है वेङ्कटेश्वर प्रेस के सूरसागर में छपे भारतेन्दु जी के नोट में यह पद पूरा उद्धृत हैं और उनका पाठ है : - सो समर करि साहि सेवक, गए विधि के लोक । , पाठ की यह भिन्नता महत्त्वपूर्ण है । भारतेन्दु का पाठ ठीक हो तो सूर के छहः भाई किसी शाह के सेवक थे और उस शाह के लिए लड़ते हुए निहित हुए । इसी पाठ को लेकर डा. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ने अनुमान किया था कि सूर के भाई लोदियों की सेवा में थे और बाबर के विरुद्ध लड़ते हुए पानीपत के युद्ध में खेत रहे थे । डा० मुन्शीराम शर्मा ने 'सूर - सौरभ' में पाठ तो सरदार कवि का लिया है किन्तु माना यही है कि सूर के भाई लोदियों के लिए लड़े थे। लोदी वंश में मंदिर तोड़नेवाला हो चुका था और इब्राहीम लोदी घमंडी और नालायक था । उसके लिए एक ब्राह्मण कुल मर मिटा और उसके रत्न सूर ने उसका गर्व के साथ बखान किया यह बात कुछ जंचती नहीं । किन्तु यदि वे लोदियों के सामन्त या सेवक नहीं थे तो वे किस लड़ाई में खेत आये ? इसका उत्तर देना कठिन नहीं यदि हम सूर का जन्म सं० १५३५ या उसके पूर्व मानने का हठ छोड़ दें। सं० १५७४ में धर्मान्ध सिकन्दर लोदी ने श्री कृष्ण जन्म स्थान वाले उस मन्दिर को तोड़ा था जिसे कन्नौज के राजा विजयपालदेव ने सं० १२१२ में बनवाया था । बल्लभ-सम्प्रदाय के ग्रन्थ सिकन्दर लोदी को वल्लभाचार्य का भक्त सिद्ध करना चाहते हैं । अतः वे इस सम्बन्ध में मौन हैं। किन्तु मंदिर निर्विरोध तोड़ डाला गया । यह बात विश्वसनीय नहीं । इसी अवसर पर ग्वालियर से आये सूर के भाइयों ने लोदियों से लोहा लिया । प्रश्न धर्म का था अतः वंशरक्षा की चिन्ता न करके पिता समेत छः भाइयों का लड़ते हुए मर मिटना समझ में आनेवाली बात है । तुलसी प्रज्ञा १३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524588
Book TitleTulsi Prajna 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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