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स्थिति तो यह है कि इससे हिंसा का दायरा बढ़ता ही जाता है और उसमें स्वयं हिंसा करने वाला ही फंस जाता है। .
___ आयारो के अनुसार, दूसरे की हिंसा करना वस्तुतः स्वयं अपनी ही हिंसा करना है क्योंकि
जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है जिसे तू अपने अधीन, अपनी आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है, वह तू ही है जिसे तू दास बनाने योग्य मानता है, वह तू ही है जिसे तू मारने योग्य मानता है, वह तू ही है।
उपर्युक्त सूत्र में आत्मा की समानता का प्रतिपादन किया गया है। सभी जीवों की आत्मा एक जैसी है। सभी प्राणियों की अनुभूतियां समान होती हैं। 'जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है'-तात्पर्य यह है कि दूसरों के द्वारा आहत होने पर जैसी अनुभूति तुझे होती है, वैसी ही अनुभूति उसे भी होती है, जिसे तू आहत करता है।
भगवान् कहते हैं कि यही वह आत्मतुला है जिसका अन्वेषण आवश्यक है-- एवं तुलमण्णेसि ।' यह आत्मतुला अंदर-बाहर की एकता की द्योतक है—'जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य को जानता है । जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है (१.१४७)। प्रत्येक व्यक्ति की सुख-दुःख की अनुभूति बेशक उसकी अपनी और निजी अनुभूति है किन्तु हम दूसरे के सुख-दुःख को स्वसंवेदन के आधार पर भलीभांति जान सकते हैं। निमित्त समान होने पर, जो अपने में घटित होता है, वही दूसरों में घटित होता है और जो दूसरों में घटित होता है, वही अपने में घटित होता है। मनुष्य यदि यह बात समझ ले तो कोई कारण नहीं है कि वह हिंसा करे। सभी प्राणियों को जीवन प्रिय है-सवेत्ति जीवियं पियं। सब प्राणियों को आयुष्य प्रिय है। सभी सुख का आस्वादन चाहते हैं, दुःख से घबराते हैं। उन्हें वध अप्रिय है, जीवन प्रिय है-वे जीवित रहना चाहते हैं. ऐसे में, स्पष्ट ही हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता।
__ भगवान महावीर द्वारा सुझाया गयी आत्मतुला का मापदंड 'सम्यक्त्व' पर आधारित है । हम सबकी आत्माएं, समान परिस्थितियों में समान अनुभव करती हैं। इसीलिए दूसरे किसी भी प्राणी का कष्ट वैसा ही मानना चाहिए जैसा स्वयं अपना कष्ट होता है। दूसरे के अहित को अपना अहित, दूसरे के दुःख को अपना दुःख, दूसरे की लाचारी को अपनी लाचारी के समान समझना ही आत्म-तुला है। इसी मापदंड को अपना कर व्यक्ति हिंसा से बच सकता है। यदि व्यक्ति हिंसा में दूसरों के दुःख और अहित और उनके भय और आतंक को अपनी इन्हीं अनुभूतियों के समान समझता है तो हिंसा स्वयं ही समाप्त हो जाती है। आयारो कहता है कि जो पुरुष हिंसा में आतंक देखता है, भहित देखता है-वह उससे निवृत्त हो सकता है-आयंक बंसी अहियं ति निच्चा।।
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तुलगी प्रज्ञा
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