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यह निष्प्रयोजन आखेट है । ऐसे लोग प्राणी के भेदन-छेदन में मानो एक विकृत, अस्वस्थ सुख प्राप्त करते हैं । ऐसी निरर्थक हिंसा को हम चाहे तो 'क्रीड़ात्मक हिंसा' भी कह सकते हैं।
हिंसा को काल-परिप्रेक्ष्य में भी देखा जा सकता है। हिंसा कभी की गई थी, हिंसा की जा रही है और हिंसा भविष्य में हो सकती है-इन तीनों ही बातों को सोचकर व्यक्ति हिंसा में लिप्त हो सकता है।
अक्सर मनुष्य हिंसा इसलिए करता है कि वह या उसके परिजन कभी विगत में हिंसा के शिकार हुए थे- अथेगे हिंसिसु मेत्ति वा वहति । व्यक्ति मानों जो हिंसा विगत में की गई थी, उसका प्रतिशोध लेने के लिए हिंसा करता है। हम चाहें तो इसे 'प्रतिशोधात्मक' हिंसा कह सकते हैं।
कुछ लोग हिंसा प्रतिशोध के लिए नहीं बल्कि तुरन्त-प्रतिक्रिया के रूप में भी करते हैं। हिंसा की सामान्य प्रतिक्रिया सदैव हिंसा ही होती है। कुछ लोग क्योंकि वर्तमान में हिंसा कर रहे होते हैं, अत प्रतिक्रिया स्वरूप व्यक्ति हिंसा करते हैंअप्पेगे हिंसंति मेत्ति वा वहति । इसके अतिरिक्त हिंसा आशंका और भय के कारण भी होती है। इस डर से कि भविष्य में कहीं हिंसा का सामना न करना पड़ जाए, व्यक्ति हिंसक हो उठ सकता है । इसे हम भयाक्रांत हिंसा कह सकते हैं । अप्पेगे हिसिस्संति मेत्ति वा वहति । कोई भी व्यक्ति इस प्रकार की तीनों अनुक्रियात्मक हिंसाओं से सामान्यतः बच नहीं पाता। हिंसा या तो विगत में की गई हिंसा का उत्तर होती है, या वर्तमान में की गई हिंसा का जवाब होती है या फिर भविष्य में हिंसा की आशंका का प्रतिफल होती है । इन तीनों प्रकार की हिंसाओं को हम क्रमशः 'प्रतिशोधात्मक हिंसा', 'प्रतिक्रियात्मक हिंसा' और 'भयाक्रांत हिंसा' कह सकते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आयारो में हिंसा के कई आयामों का संकेत मिलता है। हिंसा जहां एक ओर सुविचारित है वहीं वह दूसरी ओर भय या पाप की मुक्ति की आकांक्षा से प्रेरित है। इसी प्रकार, हिंसा जहां एक ओर प्रयोजनात्मक और सोद्देश्य है वहीं वह निष्प्रयोजन भी संपन्न की जा सकती है । हिंसा को हम काल के परिप्रेक्ष्य में भी देख सकते हैं। वह भूतकाल में की गई हिंसा से प्रेरित प्रतिशोधात्मक हिंसा हो सकती है, वर्तमान में हिंसा के प्रति वह प्रतिक्रियात्मक हिंसा भी हो सकती है और भविष्य की आशंका से प्रेरित भयाक्रांत हिंसा भी हो सकती है।
हिंसा के ये तीनों ही आयाम(१) सुविचारित-अविचारित (२) प्रयोजनात्मक-अप्रयोजनात्मक तथा (३) भूत, वर्तमान और भविष्य से काल-सापेक्षित-बहुत महत्त्वपूर्ण हैं जो
हिंसा के स्वभाव पर प्रकाश डालते हैं । आत्म तुला
कुल मिला कर मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए हिंसा करता है और उसे कई प्रकार से सम्पन्न करता है। किंतु इससे क्या कोई लाभ भी होता है ? शायद नहीं। वस्तु
खण्ड २२, अंक २
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