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लीला समाप्त कर देता है । सन्तान प्राप्ति और उसके जन्म के लिए अनेकों षट्कर्म करता है और इसी प्रकार, परिजनों की मृत्यु पर पिण्डदान आदि अनेकानेक हिंसक कर्म-काण्डों का सहभागी होता है। अपने कष्ट मोचन या दुःख निवारण हेतु वह दूसरे प्राणियों के जीवन को कष्टमय और दुःखपूर्ण बना डालने से तनिक भी नहीं हिचकिचाता।
ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य के मन में मानो एक हीन-भावना भर गई हो और इसलिए वह अधिक से अधिक बल प्राप्त करने हेतु प्रयत्न-रत रहता है । वह शारीरिक-बल, मित्र-बल, पारलौकिक-बल, देव-बल, राजबल, चोर-बल, अतिथि-बल, कुपण-बल और श्रमण-बल का संग्रह करता है, और इन नानाविध शक्तियों की सम्पूर्ति के लिए 'दंड' (या हिंसा) का प्रयोग करता है' किंतु हिंसा का यह प्रयोग क्यो व्यक्ति को सचमुच मुक्त कर सकता है ? सच तो यह है कि हिंसा किसी भी प्रयोग की सिद्धि में वस्तुतः सहायक नहीं होती। आयारो म यही बताने का प्रयत्न किया गया है और कहा गया है कि मनुष्य को अपने प्रयोजनों की सिद्धि के लिए हिंसा का न तो प्रयोग करना चाहिए, न उसका प्रयोग करवाना चाहिए और न ही प्रयोग करने वाले का अनुमोदन करना चाहिए । हिंसा के प्रारूप
यदि हम मनुष्य के विविध हिंसक-कर्मों का विश्लेषण करें तो हिंसा के एक प्रारूपशास्त्र (typology of violence) को विकसित करने में हमें कोई कठिनाई नहीं होगी। कहा गया है कि मनुष्य अपने नानाविध कार्यों की सम्पूत्ति के लिए हिंसा (दंड) का प्रयोग करता है । कोई व्यक्ति खूब सोचसमझ कर विचार पूर्वक हिंसा करता है तो कोई भयाक्रांत होकर हिंसा करता है । कुछ लोग यज्ञ-बलि आदि हिंसात्मक कर्मों से अपने पाप की मुक्ति मानते हैं और हिंसा करते हैं तो कुछ लोग अपनी अभिलाषाओं और इच्छाओं की पूत्ति के लिए हिंसा में लिप्त होते हैं । हिंसा के इस प्रकार ये चार रूप हुए -(१) सुविचारित हिंसा ('संपेहा') (२) भय-हिंसा (३) पाप-मुक्ति-कल्पित हिमा ('पाप-मोक्खोत्ति मण्णमाणे') तथा (४) आकांक्षी हिंसा ('आसंसाए')।
आयारो में एक अन्य स्थल पर हिंसा के दो रूप बताए गए हैं --- यहां कहा गया है कि कुछ लोग प्रयोजनवण प्राणियों की हिंसा करते हैं तो कुछ व्यक्ति बिना प्रयोजन के ही हिंसक कर्मों में लिप्त देखे जा सकते हैं - अप्पेगे अट्ठाए वहंति, अप्पेगे अणद्वाए वहंति' अतः हिसा के दो रूप हैं प्रयोजनात्मक और अप्रयोजनात्मक ('अट्ठाए' और 'अणदाए' हिंसा) प्रयोजनात्मक हिंसा किसी न किसी मतलब से की जाती है। यह पशुओं का चर्म, मांस, रक्त, हृदय, पित्त, चर्बी, पंख पूंछ, केश, सींग, दंत, नख, स्नायु, अस्थि और अस्थिमज्जा आदि प्राप्त करने के लिए होती है ताकि इन चीजों का व्यक्ति अपने किसी हित में उपयोग कर सके । किंतु अप्रयोजनात्मक हिंसा क्या है ? आयारो में यह स्पष्ट नहीं किया गया है किंतु इससे तात्पर्य कदाचित् इस विक्रय हिंसा से है जिसे करने में व्यक्ति को कोई लाभ प्राप्त नहीं होता किंतु एक प्रकार के घिनौने सुख का वह उसमें अनुभव करता है । हिंसा ऐसे लोगों के लिए केवल एक खेल है, आखेट है। ११२
* तुलसी प्रज्ञा
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