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________________ आयारो में इस बात पर बार-बार आग्रह किया है कि हिंसा निरर्थक है। वह किसी का हित नहीं साधती, बल्कि अहित ही करती है । हिंसा में निहित इस आतंकदर्शन को समझना आवश्यक है। जो इसे नहीं समझता वह अज्ञानी है, अबोध है। हिंसा में मनुष्य का अहित और अज्ञान है-तं से अहियाए, तं से अबोहीए। इस प्रकार आयारो में अहिंसा के तीन आलम्बन हैं -(१) आतंक-दर्शन (२) अहित-बोध और (३) आत्मतुला। आतंक दर्शन हिंसा में निहित भय और आतंक की ओर निर्देश करता है, अहित बोध उससे होने वाले अहित की ओर संकेत करता है और आत्मतुला, इन अनुभूतियों की सभी में समानता है को अनुभव कराती है जो हमें अंतत: हिंसा से विरत होने में सहायक है। जो व्यक्ति इन तीनों आलम्बनों को समझ लेता है, वह हिंसा कर ही नहीं सकता। मनुष्य हिंसा से क्यों नहीं विरत होता। वस्तुत: पुरानी आदतों को छोड़ पाना कोई आसान काम नहीं है। हम सैकड़ों वर्षों से हिंसा करते आए हैं और उसे 'उचित' ठहराते आए हैं। उसे 'उपयोगी' मानते आए हैं। यह वृत्ति हमारी संरचना में इतनी दृढ़ हो गई है कि उसने एक ग्रंथि, एक 'कॉम्पलेक्स' का रूप ले दिया है । आज हम केवल बौद्धिक स्तर पर हिंसा को भले ही अनुपयोगी और निरर्थक सिद्ध कर लें, लेकिन इससे हमारी सदियों पुरानी हिंसा की ग्रंथि में कोई असर नहीं पड़ता। हम हिंसा से मानो मोह ग्रस्त हैं और इसीलिए यह अंततः मनुष्य की मृत्यु और नारकीय जीवन का कारण बनती है एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए".13 क्या मनुष्य कभी अपनी इस ग्रंथि से, जो उसे मोहित किए है और जो उसकी मृत्यु और उसके नारकीय जीवन का कारण है, उबर पाएगा? आयारो में इसी महाप्रश्न का एक सकारात्मक उत्तर है । खण्ड २२, अंक २ ११५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524588
Book TitleTulsi Prajna 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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