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________________ वैदिक साहित्य में तत्त्व विचार Jain Education International तत्त्व-विचार' अथवा जगत् के मूल कारण की समस्या प्रारम्भिक भारतीय दर्शन की एक प्रमुख समस्या रही है, जिसके समाधान को लेकर भारतीय दर्शनिकों में मर्तक्य नहीं है । वैदिक साहित्य' में भी, 'तत्त्व अथवा जगत् का मूल कारण क्या है ? इस प्रश्न के समाधान में कोई एक सर्वमान्य मत या मान्यता नहीं है, अपितु अनेक विरोधी मत या मान्यताएं हैं, जिनमें भिन्न-भिन्न तत्त्वों को जगत् का मूल कारण माना गया है। तंत्तरिय ब्राह्मण' में' असत्' को जगत् का मूल कारण माना गया है तथा कहा गया है कि पहले कुछ नहीं था, न स्वर्ग था, न पृथ्वी थी, न आकाश । 'असत् था, उसने पहले मन को उत्पन्न किया और उससे अन्य विषयों को । शतपथ ब्राह्मण के अनुसार भी पहले 'असत्' था ।" वह ऋषि और प्राण रूप था । सात प्राणों से प्रजापति की उत्पत्ति हुई और प्रजापति से अन्य विषयों की । उपनिषदों में भी कुछ ऐसे अवतरण हैं जिनमें असत् को जगत् का मूल कारण माना गया है तंत्तिरीय उपनिषद्' के अनुसार जगत् तथा उसके विषयों की उत्पत्ति के पूर्व आदि में 'असत्' की सत्ता थी । उस असत् से सत् उत्पन्न हुआ और सत् ने स्वयं को स्वयं द्वारा जगत् के विभिन्न विषयों के रूप में प्रकट किया। छांदोग्य उपनिषद् के अनुसार आदि में एक 'असत् ' की सत्ता थी । असत् ने अपने को सत् के रूप में परिणत किया। सत् ने एक विशाल अंडे का रूप धारण किया, जो एक वर्ष तक उसी अवस्था में पड़ा रहा। फिर वह टूटा, जिससे अन्य विषयों की उत्पत्ति हुई । बृहदारण्यक उपनिषद् में भी, यद्यपि अस्पष्ट एवं अप्रत्यक्ष रूप से " असत्" को स्वीकार किया गया है । उसमें कहा गया है कि वस्तुओं के आदि में किसी वस्तु की सत्ता नहीं थी, वरन् प्रत्येक वस्तु पर "मृत्यु" या " क्षुधा " का आवरण था ।' यहां प्रश्न उठता है कि "मृत्यु" और " क्षुधा " से क्या तात्पर्य है ? क्या मृत्यु और क्षुधा एक है या भिन्न ? क्या मृत्यु और क्षुधा को असत् मानना युक्तिसंगत है ? आदि प्रश्न उठते हैं । दूसरे, बृहदारण्यक उपनिषद् के इस मत में विरोध है, क्योंकि उसमें कहा गया है कि वस्तुओं के आदि में किसी वस्तु की सत्ता नहीं थी, वरन् प्रत्येक वस्तु अथवा क्षुधा का आवरण था । जब किसी वस्तु की सत्ता ही नहीं थी, तब प्रत्येक वस्तु पर मृत्यु का आवरण था, का क्या अर्थ है ? अर्थात् इसमें एक ओर वस्तुओं की सत्ता का निषेध किया गया है, वहीं दूसरी ओर वस्तुओं की सत्ता को स्वीकार किया गया है, जो युक्तिसंगत नहीं है । यदि असत् को जगत् का मूल तत्त्व माना जाय, तब प्रश्न उठता है कि असत्' से खण्ड २२, अंक २ १०१ राजवीरसिंह शेखावत For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524588
Book TitleTulsi Prajna 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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