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________________ सत् की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? अभाव से भाव कैसे उत्पन्न हो सकता है ? अर्थात् जगत् का मूल कारण या तत्त्व "असत्" नहीं, "सत्ही हो सकता है। ऋग्वेद के दीर्घतमा ऋषि ने जगत् के मूल कारण को "सत्" माना है तथा "सत्" को एक । जैसाकि कहा गया है कि "सत्" तो एक है. किन्तु विद्वान् उसका वर्णन कई प्रकार से करते हैं । १३ छांदोग्य उपनिषदीय दार्शनिक आरुणि का मत है कि मूल तत्त्व "असत्" नहीं हो सकता, क्योंकि 'असत्" से "सत्" की उत्पति नहीं हो सकती है। अतः तत्त्व "सत्" है । आरुणि के अनुसार आदि में सब कुछ "सत्" था, जो एक और अद्वितीय था। उस “सत्" ने एक से अनेक रूप होने का विचार किया और ऐसा विचार करके उसने "तेज" को उत्पन्न किया। फिर "तेज" ने अनेक रूप होने का विचार किया और "जल" को उत्पन्न किया । "जल" ने अनेक रूप होने का विचार करके "पृथ्वी" को उत्पन्न किया। फिर “सत्" ने तीनो में तेज, जल और पृथ्वी में प्रवेश करके उन्हें नाम रूप दिया ।१५ यहां प्रश्न उठता है कि "तेज" तथा "जल" से क्या तात्पर्य है ? "जल ने विचार किया' अथवा 'तेज ने विचार किया" का क्या अर्थ है ? क्या जल तथा तेज चेतन हैं या जड़ ? यदि वे जड़ हैं, तब वे विचार कैसे कर सकते हैं ? और यदि वे चेतन हैं तब उन्हें “जड़" क्यों कहा जाता है ? आदि । मुण्डक उपनिषद् में मूल तत्त्व सम्बन्धी उपर्युक्त दोनों मतों का समन्वय मिलता है। उसमें तत्त्व को सत् और असत् रूप बतलाया गया है ।" मुण्डक उपनिषद् में कहा गया है कि जितने भी चेष्टा करने वाले, श्वास लेने वाले और आंखों को खोलने-मूंदने वाले प्राणी हैं, वे सब तत्त्व में प्रतिष्ठित हैं, जो "सत्" और "असत्" रूप है, अत्यन्त श्रेष्ठ तथा समस्त प्राणियों की बुद्धि से परे अर्थात् बुद्धि द्वारा अज्ञेय है । इसके विपरीत ऋग्वेद के "नासदीय सूक्त' के ऋषि ने तत्त्व को न सत् कहा और न असत् । वहां कहा गया है कि इस जगत् के उत्पन्न होने के पूर्व न सत् था और न असत् । उस समय न परमाणु थे और न ही आकाश था । न मृत्यु थी और न अमृत था। न ही रात्रि और दिन का कोई चिह्न था। यहां प्रश्न उठता है कि फिर तत्त्व क्या है ? जो न सत् रूप हैं और न असत् रूप, उसका स्वरूप क्या है ? क्या जो सत् रूप है और न असत् रूप, उसे तत्त्व स्वीकार किया जा सकता है ? "नासदीय सूक्त" के ऋषि ने इस व्याख्या द्वारा तत्त्व की सत्ता को स्वीकार किया है या तत्त्व का निषेध ? उपर्युक्त चर्चा में जगत् के मूल कारण या तत्त्व के रूप में "सत्" अथवा "असत्" दोनों को स्वीकार किया गया है या दोनों को स्वीकार नहीं किया गया है । इस चर्चा को लेकर प्रश्न उठता है कि "सत्" और "असत् से क्या तात्पर्य है ? क्या होना ही सत् है और क्या नहीं होना असत् है ? सत् और असत् दोनों भावरूप है या अभाव रूप ? अथवा क्या सत् भावरूप और अभाव रूप है ? क्या असत् भाव रूप नहीं हो सकता है ? यदि असत् भावरूप है तब क्या ऐसा मानना युक्तिसंगत है ? और यदि असत् अभाव रूप है तब उससे जगत् तथा उसके विषयों की उत्पत्ति कैसे सम्भव है ? यदि सत् और असत् भाव रूप है तब वे मूर्त हैं या अमूर्त ? सत् और असत् चेतन है या जड़ ? आदि प्रश्न उठते हैं, जिनका कोई तर्कसंगत समाधान नहीं मिलता है। दूसरे, ध्यान देने की बात यह है कि वेदों तथा उपनिषदों में जो सत् तथा असत् १०२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524588
Book TitleTulsi Prajna 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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