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(विष्णु, शिव एवं दुर्गा आदि) वाचक मानते हुए वैचारिक सद्भावना एवं उदारता को अक्षुण्ण रखा।
__ निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि 'अनेकांतवाद' को सुनियोजित ढंग से प्रतिष्ठापित करने का श्रेय जैन दर्शन को प्राप्त होता है । चिन्तन की उदारता एवं पर दृष्टि के प्रति आदरभाव के स्वर को मुखरित करता हुआ 'अनेकांतवाद' प्रकारांतर से वैदिक परम्परा में 'एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' की धारणा के रूप में पल्लवित हुआ है। अतः निष्पक्ष भाव से विचार करने पर अनेकांतवाद' की सार्वभौमिकता सिद्ध होती
संदर्भ (१) 'जन योन,' युवाचार्य महाप्रज्ञ,पृ० ८५ (२) 'स्याद्वाद' की सार्वभौमिकता,' ले० पं० फतेहसागर जैन पृ० ९० । (३) इण्डियन फिलोसोफी-डॉ० राधाकृष्णन् वोल्यूम-१, पृ० ३०५-६ (४) "जिणधम्मो,' ले० आचार्य श्री नानेश, पृ० २१६ । (५) येन विना लोकव्यवहारो सुविधापूर्वक सम्पादयितुं न शक्यते ।
तस्मै जगद्गुरवे अनेकांतवादाय नमः ।। (६) 'इन्द्रं मित्रं वरुमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णोगरुत्मान् । एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥'
ऋग्वेद, १११६४१४६
-(डॉ. सुभाषचन्द्र सचदेवा) १३, म्युनिसिपल कॉलोनी
सोनीपत (हरियाणा)
तुलसी प्रज्ञा
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