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________________ ४. योग-दर्शन में एक ही प्रकार के परमाणुओं में भेद जानने के लिये यौगिक प्रत्यक्ष को साधन माना है। योग दर्शन में एतत् सम्बद्ध सूत्र यह है। "जाति-लक्षणदेशैरन्यतानवच्छेदात् ततः प्रतिपत्तिः ।" इस सूत्र की भोजवृत्ति में लिखा है कि दो तदात्म (Identical) परमाणुओं की एक बिन्दु पर स्थिति सम्भव है और इस सिद्धि द्वारा दोनों परमाणुओं में पार्थक्य ज्ञान होता है। यह ज्ञान उसी प्रकार का है जिस प्रकार वैज्ञानिक लोग किसी विभवविशेष द्वारा विनिमेयता-जन्य विजनितता (Exchange degeneracy) दूर करके दो अवस्थाओं को पृथक्-पृथक् देख लेते हैं। ५. जैन दर्शन के प्रामाण्यवाद में तो एक विशेष परिवर्तन स्याद्वाद के रूप में चिन्तन में आया। यह इस दर्शन की अपनी विशेषता है। यहां कार्यकारणभाव-सिद्धान्तीय दृढ़ निश्चय भाषा के स्थान पर सम्भावना से ओतप्रोत भाषा का प्रयोग होने लगा। ध्यान रहे—यहां अनिश्चितता का स्वरूप, निर्णय की रूपादिचतुष्टय सापेक्षता पर निर्भर है। इस भाषा में तीन कोटिएं हैं। स्यादस्ति, स्यान्नास्ति एवं अनिर्वचनीयम् अस्ति। इनमें से एक-एक दो-दो एवं तीनों के संचय से सात स्थितिएं प्राप्त होंगी। क्योंकि सभी संचयों (Combination) का जोड 3c1+3co+3cg-2-1=7 है। इस प्रकार बनी सात स्थितियों के स्वरूप ये हैं -- (१) स्यादस्ति (२) स्यान्नास्ति (३) स्यादनिर्वचनीयमस्ति (४) स्यादस्ति स्यादनिर्वचनतीयमस्ति (६) स्यान्नास्ति स्यादनिर्वचनीयमस्ति (७) स्यादस्ति स्यान्नास्ति स्यादनिर्वचनीयमस्ति। इस स्याद्वादीय भाषा में सम्भावना की धारणा है। यह भाषा आधुनिक क्वान्तम यांत्रिकी में भौतिक अवस्थाओं को अभिव्यक्त करने के लिये प्रयुक्त भाषा के समान्तर है। प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय भंगियें स्पष्ट रूप से सम्भावनानुप्राणित अथवा अनेक कोटिता तथा भाषा की सहायता से अवक्तव्यता प्रकट होती है। चतुर्थ भंगी में विरोधी गुणों की योगपद्येन सत्ता के कारण अवक्तव्यता है। पञ्चम, षष्ठ एवं सप्तम भंगियों में अस्तिस्वरूप एवं नास्तिरूप के सापेक्ष अवक्तव्यता है। जैन दार्शनिकों की उपस्थापनाओं में इस भाषा का प्रयोग बहुत हुआ है। पुद्गल की गति के विवेचन में इस सम्भावनानुप्राणित भाषा का प्रयोग होता रहा है। पुद्गल की गति तथा गमन दिशा में बलप्रयोग को कारण नहीं माना गया। किञ्च इसे अस्पृशद् गति अर्थात् अन्य पुदगलों के साथ बिना स्पर्श किये ही चलते हुए माना है। ये धारणाएं प्रामाण्यवाद के विरुद्ध है। पुद्गल पर बल यदि किसी विशिष्ट दिशा में लगता है, तो उसी दिशा में उसकी गति होनी चाहिये परन्तु जैन दार्शनिकों का विश्वास रहा है कि वह किसी भी दिशा में जा सकता है। अर्थात् उसकी अन्य दिशाओं में जाने की भी सम्भावना है कार्यकारण भाव सिद्धान्त के विरुद्ध है। पुद्गल परमाणु यदि एक कण है तो इसकी गति में अन्य सभी समीपस्थमार्गवर्ती पुद्गलों के साथ इसका स्पर्श न होना असम्भव खण्ड २२, अंक २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524588
Book TitleTulsi Prajna 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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