SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तुत मूलपाठ से यह भी स्पष्ट है कि श्रीमान् माताप्रसादजी गुप्त का यहां कयास गलत है कि इस शिलालेख की भाषा पुरानी कोसली है । उनका यह कथन भी पूरी तरह भ्रांतिपूर्ण है कि इस लेख में गोदावरी प्रदेश के गोल्लों, कर्णाटक के कानोड़ों तिलंगाना के टेल्लों, उड़ीसा के ओड्रों और बंगाल के गौडों का वर्णन है। इसी प्रकार माननीय हरिवल्लभजी भायाणी का यह मानना भी सही नहीं है। कि इसमें आठहं भासहं-किन्हीं आठ भाषाओं का काव्य निबद्ध था। यह लेख पूर्ण है; किन्तु खण्डित और घिसा पिटा है । भाषा की दृष्टि से यह (मुल्तान से दमोह और काठियावाड़ से मालवा-मेवाड़ की बोलचाल की) देशी भाषा में निबद्ध है जिसकी परंपर बात-साहित्य में २०वीं सदी विक्रमी तक अक्षुण्ण रही है और हस्तलिखित बात साहित्य और शिलालेखों में सुरक्षित भी है। शिलालेख में कवि, संभवतः उज्जीन में, एकत्र जनसमूह में पांच तरूणियों को देखकर उनका हावभाव और नखशिख वर्णन कर रहा है और मालवीय की अधिक सराहना कर रहा है। पहले वर्णन (नं. १) में भी कवि मालवीय तरूणी को अनुराग भरा पुष्प कहता है जो बिना आभूषणों के ही उसे मुग्ध कर देता है। दूसरी तरूणी-काछड़ी राउल भी विअइलफूल है किन्तु वह ऊंचे देश की है और उसकी आंखें गंवारू हैं। तीसरी कानोडइ राउल भी पागल बना देने वाली है और उसके किसी घर में जाने से वह घर भी सुन्दर बनने वाला है किन्तु टक्किणी को बहुत सराहना करके भी वह पसंद नहीं कर पाता। पांचवीं राउल गउड़ि है जो अपने देश में किसी भी घर के मुखिया-वंडोरो द्वारा निस्संदेह पसंद की जाएगी। क्योंकि उसके स्तन नदी जल में डूबे चाडा (छोटी मटकी) जैसे हैं। उसकी रोमावली गंगा-यमुना वर्णी है और उसने परंपरागत सफेद कपड़ा (धवलर कापड़) ओढ रखा है। अर्थात शर्मीली है । इसलिए कोई चाहे जो कुछ कहे घर का मुखिया उसे अपने घर की भउही बना लेगा। ___ इस प्रकार ऊहापोह करके कवि मालवीय-तरूणी का विस्तार से रूप वर्णन करता है। इस प्रसंग में (पंक्ति ४०) रोडेराउ कामदेव को उपालंभ देने से भी नहीं चकता । वह उससे विवाह कर उसे लोक लक्ष्मी की तरह सजाये रखना चाहता है। वस्तुत: 'राउरवेल' की भाषा और वर्णन पर पुन: समीक्षा करने की अपेक्षा --(परमेश्वर सोलंकी) संपादक, तुलसी प्रज्ञा जैन विश्व भारती संस्थान लाडनूं-३४१३०६ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524588
Book TitleTulsi Prajna 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy