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अभिव्यक्ति के स्वर तक लाता है तो सहज ही वे थोड़े से शब्दों में भी बहुत कुछ मर्मस्पर्शी बन जाती हैं। इसीलिए उन्हें 'सूक्त' कहते हैं। प्रथमतः वे आनंद निकेतन से उद्भूत होती हैं और द्वितीयत: वे कमनीय चित्त सरोवर में कमल वत् खिलती हैं । अतः उनमें स्वकीय-परकीय भाव नहीं होता । 'महाप्रज्ञ-अतीत और वर्तमान' ----एक जीवनी मूलक ग्रन्थ है। उसमें अनायास ही ऐसी मनोविज्ञान, समाजशास्त्र और दर्शन से सम्बद्ध सूक्तियां समाहित हो गई हैं । उन्हें यहां संग्रह किया जा रहा है[क] मनोविज्ञान सम्बद्ध
१. कभी-कभी बाहर का आघात भी भीतर की चेतना को जगाने में निमित्त __ बनता है। २. जीवन में सब-कुछ उत्तरित नहीं होता। ३. यदि बालक को स्नेहपूर्ण वातावरण मिलता है तो विकास की संभावनाएं बढ़ ____ जाती हैं। ४. ताड़ना परिस्थिति विशेष में होने वाली विवशता है-स्नेह मनुष्य का निसर्ग
,
५. आंखें बाह्य जगत् के साथ अधिक सम्पर्क स्थापित करती हैं और अधिकतम
विक्षेप उत्पन्न करती हैं। ६. हर उपाय के लिए उपाय होता है। ७. दूसरे का अनिष्ट चाहने वाला, उसका अनिष्ट कर पाता है या नहीं कर पाता
किन्तु अपना अनिष्ट निश्चित ही कर लेता है। . ८. विश्वास विश्वास से बढ़ता है।"
९. पूर्ण सत्य त्रैकालिक होता है केवल सामायिक नहीं । १०. मृत्यु की मीमांसा भी मृत्यु के परिपार्श्व में उग्र बन जाती है।" ११. समय की दूरी को काटने की कोई कैंची है तो आशा । १२. रुचि के निर्माण में परिस्थिति का बहुत बड़ा हाथ होता है ।५ १३. कार्य के पीछे एक प्रेरणा, एक विश्वास, एक लक्ष्य, लक्ष्यानुरूप योजना,
सुनियोजित परिस्थिति और गहन दायित्व-बोध- जहां ये सारे घटक एक साथ होते हैं वहां आणविक शक्ति से भी अधिक ऊर्जा उत्पन्न हो जाती है
और वह स्थिति पैदा होती है जिसमें लक्ष्य और गति दो नहीं-एक बन
जाते हैं।" १५. जीवनी लेखन में वही सफल हो सकता है जो जीवनी के नायक के जीवन को
आत्मसात कर पाता है।" १५. मूलत: बीमारी एक ही है --- राग ।“ १६. जो व्यक्ति ज्ञाता बना रहेगा वह एक दिन निश्चित ही केवल ज्ञान की भूमिका
__ में पहुंच जाएगा।" ... १७. हम इन्द्रियों के साथ चेतना को न जोड़ें, मैं खा रहा हूं--फिर भी अरस बना
हुआ है।"
तुलसी प्रज्ञा
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